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पञ्चपञ्चाशत्तमं पर्व प्रकृतेऽस्मिन् स्वमाख्यानं श्रुतौ कुरुत नैषिके' । गिरिगोभूतिनामानावभूतां वटुकौ किल ॥५७।। तस्मिश्च सूर्यदेवस्य राज्ञो नाम्ना मतिप्रिया । अददाद् व्रतकं ताभ्यामिदं सुकृतवान्छया ॥५८॥
ओदनच्छादिते हेमपूर्णे पृथुकपालिके । गिरिः सुवर्णमालोक्य लोभादितरमक्षिणोत् ॥५९।। अन्यञ्च खलु कौशब्यां वणिगनाम्ना बृहद्घनः । तद्भार्या कुरुविन्दाख्या तस्य पुत्रौ बभूवतुः॥६॥ अहिदेवमहीदेवौ तौ मृते जनके गतौ । सुधनौ यानपात्रेण विमवच्छेदभीरुको ।।६१॥ सर्वभाण्डेन तौ रत्नमेकमानयतां परम् । यस्य तज्जायते हस्ते स जिघांसति हीतरम् ॥६॥ परस्परं च दुश्चिन्तां तौ विवेद्य समं गतौ । मात्रे चानीय तद्नं विरागाभ्यां समर्पितम् ॥६३॥ माता विषेण तौ हन्तुमैच्छदबोधमिता पुनः । कालिन्द्यां तैविरक्तस्तद्नं क्षिप्तं झषोऽगिलत् ॥६४॥ आनायिकगृहीतोऽसौ विक्रीतस्तद्गृहे पुनः । ततस्तयोः स्वसा मत्स्यं छिन्दाना रत्नमैक्षत ॥६५॥ मातरं भ्रातरौ चैषा विष्यान्कतु ततोऽलषत् । लोभमोहप्रभावेण स्नेहाच्च शममागतां ॥६६॥ ग्राव्णा निश्चूर्ण्य तद्नं ज्ञाताकूताः परस्परम् । संसारमावनिर्विष्णाः समस्तास्ते प्रवव्रजुः ॥६७।। तस्माद्वव्यादिलोभेन भ्रात्रादीनामपि स्फुटम् । संसारे जायते वैरं यौनबन्धो न कारणम् ।।६८॥ दृश्यते वैरमेतस्मिन् दैवयोगात् पुनः शमः । गोभूतिः सोदरो लोभागिरिणा हत एव सः ।।६९।। तस्मात्प्रेषितदूतोऽयं महाबुद्धिविमीषणः । आनीयतां न योनीयदृष्टान्तोऽत्र परिस्फुटः ॥७॥
प्रभावसे ही संसारमें यह विचित्रता स्थित है ॥५६॥ इस प्रकरणमें तुम एक कथा सुनो-नैषिक नामक ग्राम में गिरि और गोभति नामक दो ब्राह्माणोंके बालक थे॥५७॥ उसी ग्राम में राजा सूर्यदेवको रानी मतिप्रियाने पुण्यको इच्छासे एक व्रतके रूपमें उन दोनों बालकोंके लिए मिट्टीके बड़े-बड़े कपालोंमें स्वर्णं रखकर तथा ऊपरसे भात ढककर दान दिया। उन दोनों बालकोंमें से गिरि नामक बालकने देख लिया कि इन कपालोंमें स्वर्ण है तब उसने स्वर्णके लोभसे दूसरे बालकको मार डाला और उसका स्वर्ण ले लिया ॥५८-५९|| दूसरी कथा यह है कि कौशाम्बी नामा नगरीमें एक बृहद्घन नामका वणिक् रहता था। कुरुविन्दा उसकी स्त्रीका नाम था और उससे उसके अहिदेव और महीदेव नामके दो पुत्र हुए थे। जब उन पुत्रोंका पिता मर गया तब वे जहाजमें बैठकर कहीं गये । 'सूनेमें कोई धन चुरा न ले' इस भयसे वे अपना सारभूत धन साथ ले गये थे। वहाँ सब बर्तन आदि बेचकर वे एक उत्तम रत्न लाये। वह रत्न दोनों भाइयोंमेंसे जिसके हाथमें जाता था वह दसरे भाईको मारनेको इच्छा करने लगता था ॥६०-६२॥ दोनों भाई अपने खोटे विचार एक दूसरेको बताकर साथ-ही-साथ घर आये और दोनोंने विरक्त होकर वह रत्न माताके लिए दे दिया ॥६३।। माताने भी विष देकर पहले उन दोनों पुत्रोंको मारनेकी इच्छा की परन्तु पीछे चलकर वह ज्ञानको प्राप्त हो गयी। तदनन्तर माता और दोनों पुत्रोंने विरक्त होकर वह रत्न यमुना नदीमें फेंक दिया जिसे एक मच्छने निगल लिया ॥६४॥ उस मच्छको एक धोवर पकड़ लाया जो इन्हीं तीनोंके घर बेचा गया। तदनन्तर इनकी बहनने मच्छको काटते समय वह रत्न देखा ॥६५॥ सो लोभ और मोहके प्रभावसे वह माता तथा दोनों भाइयोंको विष देकर मारनेकी इच्छा करने लगो, परन्तु स्नेहवश पीछे शान्त हो गयी ॥६६।। तदनन्तर परस्पर एक दूसरेका अभिप्राय जानकर उन्होंने उस रत्नको पत्थरसे चूर-चूरकर फेंक दिया और उसके बाद संसारकी दशासे विरक्त हो सभी ने दीक्षा धारण कर ली ॥६७।। इस कथासे यह स्पष्ट सिद्ध है कि द्रव्य आदिके लोभसे भाई आदिके बीच भी संसारमें वैर होता है इसमें योनि सम्बन्ध कारण नहीं है ॥६८|| इस कथामें वैर दिखाई तो दिया है परन्तु दैवयोगसे पुनः शान्त होता गया है और पूर्व कथामें गिरिने अपने सगे भाई गोभूतिको मार ही डाला है ॥६९।। इसलिए दूत भेजनेवाले इस १. नैमिषे म. । २. उदन ज..ख.। ३. यमनायां । ४. शममागतः म. । ५. ज्ञाताहताः म. ।
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