________________
३४८
पद्मपुराणे उकिरन्नितरां दृष्टो वामतो गोमयं नवम् । वायसो विस्फुरत्पक्षो निर्मुक्तमधुरस्वरः ॥५२॥ भेरीशंखरवः सिद्धिर्जय नन्द व्रज द्रुतम् । निर्विघ्नमिति शब्दाश्च तेषां मङ्गलमुद्ययुः ॥५३॥ चतुर्दिग्भ्यः समायातः पूर्यमाणो नभश्चरैः । सुग्रीवो गन्तुमयुक्तः सितपक्षविधूपमः ॥५४॥ नानायानविमानास्ते नानावाहनकेतनाः । व्रजन्तो व्योम्नि वेगेन बभुः खेचरपुंगवाः ॥५५।। किष्किन्धाधिपतिर्वातिः शल्यो दुर्मर्षणो नलः । नीलः कालः सुषेणश्च कुमदाद्यास्तथा नृपाः ॥५६।। एते ध्वजोपरिन्यस्तमहामासुरवानराः । असमाना इवाकाशं प्रवृत्ताः सुमहाबलाः ।।५७।। रेजे विराधितस्यापि हारो निझरमासुरः। जाम्बवस्य महावृक्षो व्याघ्रो सिंहरवस्य च ॥५८॥ वारणो मेघकान्तस्य शेषाणामन्वयागताः । ध्वजेषु चिह्नतां याता भावाश्छत्रेषु चोज्ज्वलाः ॥५१॥ तेषां बभूव तेजस्वी भूतनादः पुरस्सरः । लोकपालोपमस्तस्य स्थितः पश्चान्मरुत्सुतः ॥६॥ व्रताः सामन्तचक्रेण यथास्वं परमौजसः । लङ्कां प्रति व्रजन्तस्ते रेजुः संजातसंमदाः ॥६॥ सुकेशतनयाः पूर्व लङ्कां माल्यादयो यथा । विमानशिखरारूढाश्चेलुः पद्मादयो नृपाः ॥६२॥ पार्श्वस्थः पद्मनामस्य विराधितनभश्चरः । पृष्ठतो जाम्बवस्तस्थौ सचिवैरन्वितो निजैः ॥६३।। वामे भुजे सुषेणश्च सुग्रीवो दक्षिणे स्थितः । निमेषेण च संप्राप्ता वेलंधरमहीधरम् ॥६४॥ वेलंधरपुरस्वामी समुद्रो नाम तत्र च । नलस्य परमं युद्धमातिथ्यं समुपानयन् ॥६५॥
निर्ग्रन्थ मुनिराज सामनेसे आ रहे हैं, आकाशमें छत्र फिर रहा है, घोड़ोंकी गम्भीर हिनहिनाहट फैल रही है, घण्टाका मधुर शब्द हो रहा है, दहीसे भरा कलश सामनेसे आ रहा है ॥५१॥ बायों ओर नवीन गोबरको बार-बार बिखेरता तथा पंखोंको फैलाता हुआ काक मधुर शब्द कर रहा है ॥५२॥ भेरी और शंखका शब्द हो रहा है, सिद्धि हो, जय हो, समृद्धिमान् होओ, तथा किसी विघ्न-बाधाके बिना ही शीघ्र प्रस्थान करो। इत्यादि मंगल शब्द हो रहे हैं ॥५३|| इन मंगलरूप शुभशकुनोंसे उन सबका उत्साह वृद्धिंगत हो रहा था। चारों दिशाओंसे आये हुए विद्याधरोंसे जिसकी सेना बढ़ रही थी और इसलिए जो शुक्ल पक्षके चन्द्रमाकी उपमा धारण कर रहा था ऐसा सुग्रीव चलनेके लिए उद्यत हुआ ॥५४॥ जो नाना प्रकारके यान और विमानोंसे सहित थे तथा जिनका वाहनोंपर नाना प्रकारकी पताकाएं फहरा रही थीं ऐसे वे सब विद्याधर राजा वेगसे आकाशमें जाते हुए अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥५५|| किष्किन्ध नगरके राजा सुग्रीव, हनुमान्, शल्य, दुर्मर्षण, नल, नील, काल, सुषेण तथा कुमुद आदि राजा आकाशमें उड़े जा रहे थे, सो जिनकी ध्वजाओंमें अत्यन्त देदीप्यमान वानरके चिह्न थे ऐसे ये महाबलवान् विद्याधर ऐसे जान पड़ते थे मानो आकाशको ग्रसनेके लिए ही उद्यत हुए हों ।।५६-५७|| विराधितकी ध्वजामें निर्झरके समान हार, जाम्बवको ध्वजामें महावृक्ष, सिंहरवकी ध्वजामें व्याघ्र, मेघकान्तकी ध्वजामें हाथी तथा अन्य विद्याधरोंकी ध्वजाओंमें वंश-परम्परासे चले आये अनेक चिह्न सुशोभित थे। ये सभी उज्ज्वल छत्रोंके धारक थे ॥५८-५९|| अत्यन्त तेजस्वी भतनाद उनके आगे चल रहा था और लोकपालके समान हनुमान् उसके पीछे स्थित था ॥६०॥ यथायोग्य सामन्तोंके समूहसे घिरे, परम तेजस्वी तथा हर्षसे भरे वे सब विद्याधर लंका जाते हुए अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥६१।। जिस प्रकार पहले सुकेशके पुत्र माल्य आदिने लंकाकी ओर प्रयाण किया था उसी प्रकार राम आदि राजाओंने विमानोंके अग्रभागपर आरूढ़ हो लंकाकी ओर प्रयाण किया ॥६२।। विराधित विद्याधर रामको बगल में स्थित था और अपने मन्त्रियोंसे सहित जाम्बव उनके पीछे चल रहा था ॥६३॥ बायें हाथकी ओर सुषेण और दाहिने हाथकी ओर सुग्रीव स्थित था। इस प्रकार व्यवस्थासे चलते हुए वे सब निमेष मात्रमें वेलन्धर नामक पर्वतपर जा पहुँचे ॥६४॥ वेलन्धर नगरका स्वामी समुद्र नामका विद्याधर था सो उसने परम युद्धके द्वारा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org