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त्रिपञ्चाशत्तमं पर्व
भवितव्यं कृतज्ञेन जनेन सुखमीयुषा । वेत्ति स्वार्थं न यस्तस्य जीवितं पशुना समम् ।। १०३ || मन्दोदरि परं गर्व निःसारं वहसे मुधा । यदग्रमहिषी भूत्वा दूतीत्वमसि संश्रिता ॥ १०४॥ क्व यातमधुना तत्ते सौभाग्यं रूपमुन्नतम् | अन्यस्त्रीगतचित्तस्य दूतीत्वं संश्रितासि यत् ।। १०५ || प्राकृता परमा सा त्वं वर्त्त से रतिवस्तुनि । महिषीत्वं न मन्येऽहं जाता गौरसि दुर्भगे || १०६ || मन्दोदरी ततोऽवोचत् कोपालिङ्गितमानसा । अहो तव सदोषस्य प्रगल्भत्वं निरर्थकम् ॥१०७॥ दूतखेनागतं सीतां यदि त्वां वेत्ति रावणः । भवेत्प्रकरणं तत्ते जातं यन्नैव कस्यचित् ॥ १०८ ॥ येनैवेन्दुनखानाथो दैवयोगेन मारितः । पुरस्कृत्य तमेवास्य कथं सुग्रीवकादयः ॥। १०९ ।। भृत्यत्वं दशवक्त्रस्य विस्मृत्य स्वल्पचेतसः । स्थिताः किमथवा कुर्युर्वराकाः कालचोदिताः ॥ ११० ॥ अतिमूढहतात्मानो निर्लज्जाः क्षुद्रवृत्तयः । अकृतज्ञा वृथोत्सिक्ताः स्थितास्ते मृत्युसंनिधौ ॥ १११ ॥ इत्युक्ते वचनं सीता जगौ कोपसमाश्रिता । मन्दोदरि सुभन्दा त्वमेवं या कत्थसे वृथा ॥ ११२ ॥ शूरकोविदगोष्ठीषु कीर्त्यमानो न किं त्वया । प्रियो मे पद्मनाभोऽसौ श्रुतोऽस्यद्भुतविक्रमः ॥ ११३ ॥ वज्राव॑र्तधनुर्घोषं श्रुत्वा यस्य रणागमे । भयज्वरितकम्पाङ्गाः सीदन्ति रणशालिनः ॥११४॥ लक्ष्मीधरोऽनुजो यस्य लक्ष्मीनिलयविग्रहः । शत्रुपक्षक्षयं कर्तुं समर्थो वीक्षणादपि ॥ ११५ ॥ किमत्र बहुनोक्तेन समुत्तीर्य महार्णवम् । पतिरेष समायाति लक्ष्मणेन समन्वितः ।। ११६ ॥
है ? || १०२ ॥ सुख प्राप्त करनेवाले मनुष्यको कृतज्ञ होना चाहिए । जो सुखदायकके लाभको नहीं समझता है उसका जीवन पशुके समान है ॥ १०३ ॥ हे मन्दोदरि ! तुम व्यर्थं ही निःसार गर्व धारण करती हो जो पटराज्ञी होकर भी दूतीका कार्य कर रही हो ॥ १०४ ॥ | तुम्हारा वह सौभाग्य तथा उन्नत रूप इस समय कहाँ गया जो परस्त्रीसक्त पुरुषकी दूती बनने बैठी हो ? || १०५ || जान पड़ता है कि तुम रतिकार्यके विषयमें अत्यन्त साधारण स्त्री हो गयी हो । अब मैं तुममें महिषीत्व ( पट्टरानीपना) नहीं मानता, हे दुर्भगे ! अब तो तुम गौ हो गयी हो ॥ १०६ ॥
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तदनन्तर जिसका मन क्रोधसे आलिंगित हो रहा था ऐसी मन्दोदरीने कहा कि अहो ! अपराधी होकर भी तू निरर्थक प्रगल्भता बता रहा है - बढ़-बढ़कर बात कर रहा है || १०७॥ तू बनकर सीताके पास आया है यदि यह बात रावण जान पायेगा तो तेरी वह दशा होगी जो किसीकी नहीं हुई होगी || १०८ || जिसने देव योगसे चन्द्रनखाके पति - खरदूषणको मारा है उसीको आगे कर ये क्षुद्रचेता सुग्रीवादि रावणकी दासता भूल एकत्रित हुए हैं, सो यमके प्रेरे ये नीच कर ही क्या सकते हैं ? ॥१०९-११०॥ जान पड़ता है कि जिनकी आत्मा अत्यन्त मूढ़तासे उपहत है, जो निर्लज्ज हैं, क्षुद्रचेष्टाके धारक हैं, अकृतज्ञ हैं, और व्यर्थ ही अहंकारमें फूल रहे हैं ऐसे वे सब मृत्युके निकट आ पहुँचे हैं ॥ १११ ॥ मन्दोदरीके इस प्रकार कहनेपर सीताने कुपित होकर कहा कि हे मन्दोदरि ! तू अत्यन्त मूर्ख है जो इस तरह व्यर्थं ही अपनी प्रशंसा कर रही है ॥ ११२ ॥
शूरवीर तथा विद्वानोंको गोष्ठीमें जिनकी अत्यन्त प्रशंसा होती है तथा जो अद्भुत पराक्रमके धारक हैं ऐसे मेरे पति रामका नाम क्या तूने नहीं सुना है ? ||११३ || रणके प्रारम्भमें जिनके वज्रावर्त धनुषका शब्द सुनकर युद्ध में निपुण मनुष्य ज्वरसे काँपते हुए दुःखी होने लगते हैं ||११४ || जिसके शरीर में लक्ष्मीका निवास है ऐसा लक्ष्मण जिनका छोटा भाई है ऐसा भाई कि जो देखने मात्रसे शत्रुपक्षका क्षय करनेमें समर्थ है | ११५ || इस विषय में बहुत कहने से क्या ? हमारा पति लक्ष्मणके साथ समुद्रको तैरकर अभी आता है ॥ ११६ ॥
१. वज्रावतं धनुर्घोषं म. ।
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