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त्रिपञ्चाशत्तम पर्व
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सायके रविहासाख्ये लक्ष्मणेन निजीकृते । गत्वा चन्द्रनखानिष्टा रमणं समरोषयत् ॥७३॥ यावदाहूयते स्वामी रक्षसां सुमहाबलः । दूषणस्तावदायातो योर्बु दाशरथिं द्रुतम् ॥७॥ लक्ष्मणो दूषणेनामा युध्यते यावदुद्धतम् । तावदशमुखः प्राप्तस्तमुद्देशं बलान्वितः ।।७।। धर्माधर्मविवेकज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः । भवतों वीक्ष्य स क्षुद्रो बभूव मनसो वशः ।।७६॥ भ्रष्टनिःशेषनीतिश्च निस्सारीभूतचेतनः । मायासिंहस्वनं चक्रे भवतीस्तनकारणम् ॥७॥ श्रुत्वा सिंहस्वनं पद्मो ययौ यावद्रणस्थितम् । लक्ष्मणं तावदेतेन पापेन त्वमिहाहृता ॥७॥ प्रेषितः पद्मनाभश्च लक्ष्मणेन त्वरावता । गत्वा भूयस्तमुद्देशं न त्वामैक्षत सत्तमे ॥७९॥ ततश्चिरं वनं भ्रान्त्वा त्वद्गवेषणकारणम् । ईक्षांचक्रे इलथप्राणं मृत्त्वासनं जटायुषम् ॥८॥ तस्मै दत्वा स जैनेन्द्रीं म्रियमाणाय देशनाम् । अवतस्थे वने दुःखी भवतीगतमानसः॥८॥ गतश्च लक्ष्मणः पद्मं निहत्य खरदूषणम् । आनीता रत्नजटिना त्वत्प्रवृत्तिः प्रियस्य ते ॥८॥ सुग्रीवरूपसंयुक्तः पद्मनाभेन साहसः । बलं हन्तं समुद्युक्तो विद्यया वर्जितो हतः ॥८३॥ कृतस्यास्योपकारस्य कुलपावनकारिणः । अहं प्रत्युपकाराय प्रेषितो गुरुबान्धवैः ॥४४॥ प्रीत्या विमोचयामि त्वां विग्रहो निःप्रयोजनः । कार्यसिद्धि रिहाभीष्टा सर्वथा नयशालिभिः ॥८५॥ सोऽयं लङ्कापुरीनाथो घृणावान् विनयान्वितः । धर्मार्थकामवान् धीरो हृदयेन मृदुः परम् ॥८६॥ सौम्यः क्रौर्यविनिर्मुक्तः सत्यवतकृतस्थितिः । करिष्यति वचो नूनं मम स्वामपयिष्यति ॥७॥
जब लक्ष्मणने सूर्यहास खड्ग अपने आधीन कर लिया और चन्द्रनखाको जब राम-लक्ष्मणने चाहा नहीं तब उसने अपने पति खरदूषणको रोषयुक्त कर दिया अर्थात् विपरीत भिड़ाकर उसे कुपित कर दिया ॥७३॥ सहायताके लिए जबतक महाबलवान् राक्षसोंके स्वामी-रावणको बुलाया तबतक खरदूषण शीघ्र ही युद्ध करनेके लिए रामके समीप आया ॥७४॥ उधर लक्ष्मण जबतक खरदूषणके साथ विकट युद्ध करता है तबतक इधर अतिशय बलवान् रावण उस स्थानपर आता है ॥७५।। यद्यपि रावण धर्म-अधर्मके विवेकको जाननेवाला एवं समस्त शास्त्रोंका विशारद था, तो भी वह क्षुद्र आपको देख मनके वशीभूत हो गया ॥७६।। तदनन्तर जिसकी समस्त नीति भ्रष्ट हो गयी थी और चेतना निःसार हो चुकी थी ऐसे उस रावणने आपको चुरानेके लिए मायामय सिंहनाद किया ॥७७|| उस सिंहनादको सुन जबतक राम, युद्धमें स्थित लक्ष्मणके पास गये तबतक यह पापी तुम्हें हरकर यहाँ ले आया ॥७८॥ उधर लक्ष्मणने शीघ्र ही युद्धक्षेत्रसे रामको वापस किया सो वहाँसे आकर जब वे पुनः उस स्थानपर आये तब हे पतिव्रते ! उन्होंने तुम्हें नहीं देखा ॥७९॥ तदनन्तर तुम्हें खोजनेके लिए चिरकाल तक वनमें भ्रमण कर उन्होंने शिथिल प्राण एवं मरणासन्न जटायुको देखा ॥८०॥ तदनन्तर उस मरणोन्मुखके लिए जिनेन्द्र धर्मका उपदेश देकर वे दुःखी हो वनमें बैठ गये । उस समय उनका मन एक आपमें ही लग रहा था ॥८१॥
लक्ष्मण, खरदूषणको मारकर रामके पास आये और रत्नजटी तुम्हारे पतिके लिए तुम्हारा वत्तान्त ले आया।८२॥ इसो बीच में सग्रीवके रूपसे यक्त साहसगति नामका विद्याधर रामको मारने के लिए उद्यत हुआ परन्तु रामके प्रभावसे विद्यासे रहित होनेके कारण वह स्वयं मारा गया ।।८३।। इस प्रकार रामने हमारे कुलको पवित्र करनेवाला यह जो महान् उपकार किया था उसका बदला चुकानेके लिए हो गुरुजनोंने मुझे भेजा है ॥८४॥ मैं तुम्हें प्रीतिपूर्वक छुड़वाता हूँ। युद्ध करना निष्प्रयोजन है क्योंकि नीतिज्ञ मनुष्योंको सब तरहसे कार्यकी सिद्धि करना ही संसारमें इष्ट है ॥८५॥ यह लंकापुरीका राजा रावण दयालु है, विनयी है, धर्म-अर्थ-कामरूप त्रिवर्गसे सहित है, धीर है, हृदयसे अत्यन्त कोमल है ।।८६।। सौम्य है, क्रूरतासे रहित है और सत्यव्रतका पालनेवाला है, अतः निश्चित ही मेरा कहा करेगा और तुम्हें मेरे लिए सौंप देगा ॥८॥
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