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पद्मपुराणे
साहमस्यामवस्थायां निमग्ना कपिलक्षण । तुष्टा किं ते प्रयच्छामि हतेन विधिनान्विता ॥५८॥ ऊचे च वायुपुत्रेण दर्शनेनैव ते शुभे । अथ मे सुलभ सर्व जातं जगति पूजिते ॥५९।। ततो मुक्ताफलस्थूलवाष्पबिन्दुचिताधरा । सीता श्रीरिव दुःखार्ता पप्रच्छ कपिलक्षणम् ॥६॥ मकरग्राहनकादिक्षोभितं भीममर्णवम् । भद्र दुस्तरमुल्लङ्घय विस्तीर्ण कथमागतः ॥६॥ अवस्था वा गतामेतां कायसंसिद्धिमागताम् । किमर्थ मामिहागत्य नयस्याश्वासमुत्तमम् ॥६२।। लावण्यद्युतिरूपाढ्यः कान्तिसागरसंवृतः । श्रिया कीर्त्या च संयुक्तः प्रियो मे भद्र बान्धवः ॥६३॥ प्रदेशे स त्वया कस्मिन् प्राणनाथो ममेक्षितः । सत्यं जीवति सद्गोत्र क्वचिल्लक्ष्मणसंगतः ॥६४॥ किं नु दुःखेचरैः संख्ये मोमैः व्यापादितोऽनुजः । लक्ष्मणेनैव तुल्यः स्यात्पद्मः पद्मामलोचनः ॥६५॥ किं वा मद्विरहादुग्रदुःखं नाथः समाश्रितः । संदिश्य भवतः किंचिद्वने लोकान्तरं गतः ॥६६॥ जिनेन्द्रविहिते मार्ग निःशेषग्रन्थवर्जितः । तपस्यन् किमसावास्ते भवनिर्वेदपण्डितः ॥६॥ शिथिलीभूतनिःशेषशरीरस्य वियोगतः । अङ्गलीतश्च्युतं प्राप्तं त्वया स्यादङ्गलीयकम् ॥६८॥ त्वया सह परिज्ञाति सीदेव मम प्रभोः । कार्येण रहितः प्राप्तः कथं त्वं तस्य मित्रताम् ॥६९॥ न च प्रत्युपकाराय शक्ता तुष्टाप्यहं तव । अङ्गुलीयकमेतच्च समानीतं कृपावता ॥७॥ एतत्सर्वं मम भ्रातः समाचक्ष्व विशेषतः । सत्येन श्रावितः पित्रोदेवस्य च मनोजुषः ॥७१॥ इति पृष्टः समाधानी शाखामृगकिरीटभृत् । शिरस्थकरराजीवो जगाद विकचेक्षणः ॥७२॥
हनुमानसे कहा कि हे कपिध्वज ! मैं इस अवस्थामें निमग्न तथा दुर्भाग्यसे युक्त हूँ। सन्तुष्ट होकर तुझे क्या हूँ ? ॥५७-५८॥ इसके उत्तरमें हनुमान्ने कहा कि हे शुभे-हे मंगलरूपिणि ! हे पूजिते ! आज आपके दर्शनसे ही मुझे संसारमें सब कुछ सुलभ हो गया है ।।५९॥ तदनन्तर मोतियोंके समान बड़ी-बड़ी अश्रुओंकी बूंदोंसे जिसका ओंठ व्याप्त हो रहा था तथा जो दुःखसे पीड़ित लक्ष्मीके
मान जान पड़तो थी ऐसी सीताने हनुमान्से पूछा कि हे भद्र! मकर-ग्राह तथा नाक आदिसे क्षोभित इस भयंकर दुस्तर तथा लम्बे-चौड़े समद्रको लांघकर तू किस प्रकार आया है ? इस अवस्था अथवा कार्यकी सिद्धिको प्राप्त हुई जो मैं हूँ सो मुझे यहाँ आकर तू किस लिए उत्तम धैर्य प्राप्त करा रहा है ॥६०-६२॥ हे भद्र ! तू लावण्य-कान्ति तथा रूपसे सहित, कान्तिरूपी सागरसे घिरा, तथा लक्ष्मी और कोतिसे युक्त मेरा प्यारा भाई ही है ॥६३॥ तूने मेरे प्राणनाथको कहाँ देखा था ? हे कुलीन ! क्या सचमुच ही मेरे प्राणनाथ, लक्ष्मणके साथ कहीं जीवित हैं ? ॥६४॥ ऐसा तो नहीं है कि उन भयंकर दुष्ट विद्याधरोंके द्वारा युद्ध में छोटा भाई लक्ष्मण मारा गया हो और उस दुःखसे दुःखी हो कमललोचन राम भी उसीकी तुल्य अवस्थाको प्राप्त हो गये हों ॥६५।। अथवा तुम्हें सन्देश देनेके बाद मेरे विरहसे अत्यन्त उग्र दुःखको प्राप्त हो नाथ, किसी वनमें लोकान्तरको प्राप्त हो गये हों ? ||६६॥ अथवा वे संसारसे विरक्त रहने में निपुण थे अतः समस्त परिग्रहका त्यागकर जिनेन्द्र प्रणीत मार्गमें दीक्षित हो कहीं तपस्या करते हुए विद्यमान हैं ? ॥६७|| अथवा वियोगके कारण जिनका समस्त शरीर शिथिल हो गया है ऐसे श्रीरामकी अंगुलीसे यह अंगूठी कहीं गिर गयी होगो सो तुम्हें मिली है ? ॥६८|| तुम्हारे साथ मेरे स्वामीका परिचय पहले नहीं था फिर बिना कारण तू उनकी मित्रताको कैसे प्राप्त हो गया ? ॥६९।। तू दयालु होकर यह अंगूठी लाया है सो सन्तुष्ट होकर भी मैं तेरा प्रत्युपकार करने के लिए समर्थ नहीं हूँ ॥७०।। हे भाई ! तू अपने माता-पिता अथवा हृदयमें विद्यमान श्रीजिनेन्द्रदेवके कारण सत्य ही कथन करेगा ॥७१।। इस प्रकार पूछे जानेपर चित्तकी एकाग्रतासे युक्त, वानर-चिह्नित मुकुटको धारण करनेवाला, तथा विकसित नेत्रोंसे सहित हनुमान्, हस्त-कमल जोड़ मस्तकसे लगा इस प्रकार कहने लगा ॥७२॥ कि १. प्राणनाथे म. । २. व्यापादितानुजः क., ख. । ३. ते पश्यन् ( ? ) म. । ४. मनोजुषा ब. बारण-म. ।
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