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त्रिपञ्चाशत्तम पर्व
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उत्तमस्त्रीसहस्राणां ततो मध्यगताभिमाम् । प्रभामण्डलकल्पोऽसौ पद्मपत्नीमुपागमत् ॥४२॥ निःशङ्कद्विपविक्रान्तः संपूर्णेन्दुसमाननः । सहस्रांशुसमो दीप्त्या माल्याम्बरविभूषितः ॥४३॥ रूपेणाप्रतिमो युक्तः कान्त्या निर्मंगचन्द्रमाः । किरीटे वानरं बिभ्रदामोदाहृतषट्पदः ॥४४॥ चन्दनार्चितसर्वाङ्गः पीतचर्चाविराजितः । ताम्बूलारक्तबिम्बोष्टः प्रलम्बांशुकशोभितः ॥४५॥ चलत्कुण्डलविद्योतविहसदगण्डमण्डलः । परं संहननं बिभ्रद्वीर्यणान्तविवर्जितः॥४६॥ सपन् सीतां समुद्दिश्य हनूमान् गुणभूषणः । महाप्रतापसंयुक्तः शोभामुपययौ पराम् ॥४७॥ कान्तिमासिमुखं दृष्ट्वा तं युतं परया श्रिया । पद्मायतेक्षणा नार्यस्ता बभूवुः समाकुलाः ॥४८॥ दधती हृदये कम्पं मन्दोदर्याप्तविस्मया। समालोकत सीतायाः समीपे वायुनन्दनम् ॥४९॥ उपगम्य ततः सीतां विनीतः पवनात्मजः । करकुडमलमाधाय मस्तके नम्रतायुषि ॥५०॥ कुलं गोत्रं च संश्राव्य पितरं जननी तथा । अवेदयच्च विश्रब्धं पद्मनाथेन चोदितम् ॥५१॥ त्रिविष्टपसमे साध्वि विमाने विभवान्विते । रतिं न लमते रामो मग्नस्त्वद्विरहार्णवे ॥५२॥ त्यक्तनिःशेषकर्तव्यो मौनं प्रायेण धारयन् । स त्वां मनिरिव ध्यायन्नेकतानोऽवतिष्ठते ॥५३॥ वेणुतन्त्रीसमायुक्तं गीतं प्रवरयोषिताम् । न कर्णजाहमेतस्य कदाचिद्याति पावने ॥५४॥ सदा करोति सर्वस्मै कथां स्वामिनि ते मुदा । त्वदीक्षणाशया प्राणान् बद्धवा धत्ते स केवलम् ।।५५॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा पतिजीवनवेदनम् । प्रमोदं परमं प्राप्ता सीता विकसितेक्षणा ॥५६॥ विषादं संगता भूयो जलपूरितलोचना । उचे शान्ता हनूमन्तं विनीतं स्थितमग्रतः ॥५७॥
गया ॥४२॥ जो शंका रहित हाथीके समान पराक्रमी था, जिसका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर था, जो दीप्तिसे सूर्यके समान था, माला और वस्त्रोंसे सुशोभित था। रूपसे अनुपम था । कान्तिसे मृग रहित चन्द्रमाके समान जान पड़ता था, मुकुटमें वानरका चिह्न धारण कर रहा था, सुगन्धिसे जो भ्रमरोंको आकर्षित कर रहा था, चन्दनसे जिसका समस्त शरीर चचित था, जो पीत विलेपनसे सुशोभित था, जिसका बिम्बोष्ठ ताम्बूलके रससे लाल था, जो नीचे लटकते हुए वस्त्रसे सुशोभित था, चंचल कुण्डलोंके प्रकाशसे जिसका गण्डस्थल सुशोभित हो रहा था, जो उत्कृष्ट संहननको धारण कर रहा था, जिसके पराक्रमको सीमा नहीं थी, जो गुणरूपी आभूषणोंसे युक्त था, तथा महाप्रतापसे सहित था ऐसा हनुमान् सीताको लक्ष्य कर धीरे-धीरे जाता हुआ परम शोभाको प्राप्त हो रहा था ॥४३-४७।। जिसका मुख कान्तिसे सुशोभित था, ऐसे उत्कृष्ट लक्ष्मीसे युक्त हनुमान्को देखकर वे कमललोचना स्त्रियाँ व्याकुल हो उठीं ॥४८॥ जिसके हृदयमें कपकपी छूट रही थी ऐसी मन्दोदरीने सीताके समीप हनुमान्को आश्चर्यके साथ देखा ।।४९।।
तदनन्तर सीताके समीप पहुँचकर परम विनीत हनुमान्ने झुके हुए मस्तकपर अंजलि बाँध पहले अपने कुल, गोत्र तथा माता-पिताका नाम सुनाया। उसके बाद निश्चिन्त हो रामका सन्देश कहा ॥५०-५१॥ उसने कहा कि हे पतिव्रते! तुम्हारे विरहरूपी सागरमें डूबे राम, स्वर्गके समान वैभवसे युक्त विमानमें भी रतिको प्राप्त नहीं हो रहे हैं ।।५२॥ अन्य सब कार्य छोड़कर वे प्रायः मौन धारण किये रहते हैं और मुनिकी भाँति एकाग्र चित्त हो तुम्हारा ध्यान करते हुए बैठे रहते हैं ॥५३॥ हे पावने हे पवित्रकारिणि ! बाँसुरी तथा वीणासे युक्त उत्तम स्त्रियोंका संगीत कभी भी उनके कर्णमूलमें नहीं पहुँचता है ।।५४॥ हे स्वामिनि ! वे सदा सबके सामने बड़े हर्षसे तुम्हारी ही कथा करते रहते हैं और केवल तुम्हारे दर्शनकी अभिलाषासे हो प्राणोंको बाँधकर धारण किये हुए हैं ॥५५॥ इस प्रकार पतिके जीवनको सूचित करनेवाले हनुमान्के वचन सुन सीता परम प्रमोदको प्राप्त हुई। उसके नेत्र-कमल खिल उठे ॥५६॥
तदनन्तर विषादको प्राप्त, शान्त सीताने नेत्रमें जल भरकर सामने बैठे हुए विनय
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