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पद्मपुराणे गम्भीरो दौन्दुभो धीरो ध्वानो ध्वस्तापरध्वनिः । चक्रबालं दिशां व्याप्य प्रतिध्वनिघनः स्थितः ॥४३॥ संकुलं चलता येन सैन्येन गगनाङ्गणम् । खण्डखण्डैरिवच्छन्नमन्तरेषु व्यलोक्यते ॥४४॥ भासां भूषणजातानां बहुवर्णयुजां चयैः । विशिष्टशिल्पिना रक्तं नमो वस्त्रमिवामवत् ॥४५॥ ध्वनि मारुतितूर्यस्य त्वा संनह्य गह्वरम् । तोषं कपिध्वजाः प्रापुः शिखिनोऽब्दध्वनिं यथा ॥४६॥ कृतापणमहाशोमं ध्वजमालासमाकुलम् । रत्नतोरणसंयुक्त किष्किन्धनगरं कृतम् ।।४।। बहुमिः पूज्यमानोऽसौ विमवैत्रिदशोपमैः । विवेश नगरं सद्म सुग्रीवस्य च पुष्कलम् ॥४॥ सुग्रीवेण प्रतीष्टश्च यथाहं रचितादरः । कथितं चाखिलं तस्य पद्मनाभादिचेष्टितम् ॥४९॥ अनेनैव ततो युक्ताः सुग्रीवाद्या नरेश्वराः । धारयन्तः परं हर्ष पद्मनाममुपाययुः ॥५०॥ अपश्यञ्च नरश्रेष्ठं तं लक्ष्मीधरपूर्वजम् । नीलकुञ्चितसूक्ष्मातिस्निग्धकेशं मरुत्सुतः ॥५५॥ लक्ष्मीलताविषक्ताङ्गं कुमारमिव भास्करम् । शशाङ्कमिव लिम्पन्तं कान्तिपङ्केन पुष्करम् ॥५२॥ नयनानां समानन्दं मनोहरणकोविदम् । अपूर्वकर्मणां सर्ग स्वर्गादिव समागतम् ॥५३॥ ज्वलद्विशुद्धरुक्माम्बुरुहगर्भसमप्रभम् । मनोज्ञा गतनासाग्रं संगतश्रवणद्वयम् ॥५४॥ मूर्तिमन्तमिवानङ्ग पुण्डरीकनिभेक्षणम् । चापानतभ्रुवं पूर्णशारदेन्दुनिभाननम् ॥५५॥ बिम्बप्रवालरकोष्ठं कुन्दश्वेतद्विजावलिम् । कम्बुकण्ठं मृगेन्द्रामवक्षोमाजं महाभुजम् ॥५६॥
हो ॥४२॥ दूसरोंकी ध्वनिको नष्ट करनेवाला उसकी दुन्दुभिका धीर गम्भीर शब्द दिशाओंके मण्डलको व्याप्त कर स्थित था तथा उसकी जोरदार प्रतिध्वनि उठ रही थी ॥४३।। उसकी चलती हुई सेनासे व्याप्त आकाशांगण ऐसा दिखाई देता था मानो बीच-बीचमें खण्ड-खण्डोंसे आच्छादित हो ॥४४॥ उसके नाना प्रकारके भूषणोंके समूहकी कान्तिसे रंगा हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो किसी विशिष्ट-कुशल शिल्पीके द्वारा रंगा वस्त्र ही हो ॥४५।। हनुमान्की तुरहीका गम्भीर शब्द श्रवण कर सब वानरवंशी इस प्रकार सन्तोषको प्राप्त हुए जिस प्रकार कि मेघका शब्द सुनकर मयूर सन्तोषको प्राप्त होते हैं ।।४६।। उस समय किष्किन्धनगरके बाजारोंमें महाशोभा की गयी; ध्वजाओं तथा मालाओंसे नगर सजाया गया और रत्नमयी तोरणोंसे युक्त किया गया ॥४७॥ देवोंके समान अनेक विद्याधरोंने बड़े वैभवसे जिसकी पूजा की थी ऐसा हनुमान् सुग्रीवके विशाल महलमें प्रविष्ट हुआ ॥४८॥ सुग्रीवने यथायोग्य आदर कर उसका सम्मान किया तथा राम आदिकी समस्त चेष्टाएँ उसके समक्ष कहीं ॥४९।। तदनन्तर हनुमान्से युक्त सुग्रीव आदि राजा परम हर्षको धारण करते हुए रामके समीप आये ॥५०॥ तत्पश्चात् हनुमान्ने उन श्रीरामको देखा जो मनुष्योंमें श्रेष्ठ थे, लक्ष्मणके अग्रज थे, जिनके केश काले, घुघराले, सूक्ष्म तथा अत्यन्त स्निग्ध थे ॥५१॥
जिनका शरीर लक्ष्मीरूपी लतासे आलिंगित था, जो बालसूर्यके समान जान पड़ते थे अथवा जो कान्तिरूपी पंकके आकाशको लिप्त करते हुए चन्द्रमाके समान सुशोभित थे ॥५२॥ जो नेत्रोंको आनन्द देनेवाले थे, मनके हरण करने में निपुण थे, अपूर्व कर्मोकी मानो सृष्टि ही थे और स्वर्गसे आये हुए के समान जान पड़ते थे ॥५३॥ देदीप्यमान निमल स्वर्ण-कमलके भीतरी भागके समान जिसकी प्रभा थी, जिनकी नासाका अग्रभाग मनोहर था, जिनके दोनों कर्ण उत्तम सुडौल अथवा सज्जनोंको प्रिय थे ॥५४॥ जो मूर्तिधारी कामदेवके समान जान पड़ते थे, जिनके नेत्र कमलके समान थे, जिनकी भौंह चढ़े हुए धनुषके समान नम्रीभूत थी, जिनका मुख शरद् ऋतुके पूर्ण चन्द्रमाके समान था ॥५५॥ जिनका ओंठ बिम्ब अथवा मूंगा या किसलयके समान
१. वयैः म.। २. कान्तिपोन । ३. पुष्कलम् ख.। ४. मनोज्ञां गतनासाग्रं । ५. सङ्गतं श्रवणद्वयम् म. ।
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