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एकपञ्चाशत्तमं पवं
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यावन्तो भुवने केचिद्विजया दिसंभवाः । विद्याधरकुमारेन्द्राः कुलपुष्करभास्कराः ॥२७॥ तेऽस्मदर्थे शिवं क्वापि न विन्दन्तेऽथिनो भृशम् । दुष्टस्त्वङ्गारको नाम तापं धत्ते विशेषतः ॥२८॥ अन्यदा परिपृष्टश्च तातेनाष्टाङ्गविन्मुनिः । स्थानेषु भगवन् केषु मव्या दुहितरो मम ॥२९॥ सोऽवोचत् साहसगतिं यो हनिष्यति संयुगे । आसां कतिपयाहोभी रमणोऽसौ भविष्यति ॥३०॥ निशम्यामोधवाक्यस्य मुनेस्तद्वचनं ततः । अचिन्तयत् पिताऽस्माकं विधाय स्मेरमाननम् ॥३॥ कस्त्वसौ भविता लोके नरो वज्रायुधोपमः । विजया?त्तरश्रेणीश्रेष्ठं यो हन्ति साहसम् ॥३२॥ अथवा न मनेर्वाक्यं कदाचिजायतेऽनृतम् । इति विस्मयमाविष्टः पिता माता जनस्तथा ॥३३॥ चिरं प्रार्थयमानोऽपि यदासौ लब्धवान्न नः । तदास्मददुःखचिन्तास्थः संजातोऽङ्गारकेतुकः ॥३४॥ ततः प्रभृति चास्माकमयमेव मनोरथः । द्रक्ष्यामस्तं कदा वीरमिति साहससूदनम् ॥३५॥ एतच्च वनमायाता दारुणद्रुमसंकटम् । मनोऽनुगामिनी नाम विद्यां साधयितं पराम् ॥३६॥ दिवसो द्वादशोऽस्माकं वसन्तीनामिहान्तरे । प्राप्तस्य साधुयुग्मस्य वर्तते दिवसोऽष्टमः ॥३७॥ अङ्गारकेतुना तेन वीक्षिताश्च दुरात्मना। ततस्तेनानुबन्धेन क्रोधेन पूरितोऽभवत् ॥३८॥ ततोऽस्माकं वधं कर्तमेता दश दिशः क्षणात् । धूमाङ्गारकवर्षण वतिना पिञ्जरीकृताः ॥३९॥ षड्भिः संवत्सरैः सायदुःसाध्यं प्रसाध्यते । दवाङ्गमुपसर्गस्य तदद्यैव हि साधितम् ॥४०॥ इहापदि महाभाग नामविष्यद् भवान् यदि । अधक्ष्याम हि योगिभ्यां सहारण्ये ततो ध्रुवम् ।।४१॥
अपने समस्त कुलके लिए अत्यन्त प्यारी हैं ।।२६।। इस संसारमें अपने कुलरूपी कमलोंको विकसित करने के लिए सूर्यके समान, विजयाधं आदि स्थानोंमें उत्पन्त हुए जितने कुछ विद्याधर कुमार हैं वे सब हम लागोंके अत्यन्त इच्छुक हो कहीं भी सुख नहीं पा रहे हैं। उन कुमारोंमें अंगारक नामक दुष्ट कुमार विशेष रूपसे सन्तापको धारण कर रहा है ॥२७-२८॥ किसी एक दिन हमारे पिताने अष्टांगनिमित्तके ज्ञाता मुनिराजसे पूछा कि हे भगवन् ! मेरी पुत्रियाँ किन स्थानोमें जावेंगी ॥२९॥ इसके उत्तरमें मुनिराजने कहा था कि जो युद्ध में साहसगतिकी मारेगा वह कुछ ही दिनोंमें इनका भर्ता होगा ।।३०।। तदनन्तर अमोघ वचनके धारक मुनिराजका वह वचन सुन हमारे पिता मुखको मन्द हास्यसे युक्त करते हुए विचार करने लगे कि ॥३१।। संसारमें इन्द्रके समान ऐसा कौन पुरुष होगा जो विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें श्रेष्ठ साहसगतिको मार ‘सकेगा ||३२|| अथवा मुनिके वचन कभी मिथ्या नहीं होते यह विचारकर माता-पिता आदि आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥३३।। चिरकाल तक याचना करनेपर भी जब अंगारक हम लोगोंको नहीं पा सका तब वह हम लोगोंको दुःख देनेवाले कारणोंकी चिन्तामें निमग्न हो गया ॥३४॥ उस समयसे लेकर हम लोगोंका यही एक मनोरथ रहता है कि हम साहसगतिको नष्ट करनेवाले उस वीरको कब देखेंगी ॥३५॥ हम तीनों कन्याएँ मनोनुगामिनी नामक उत्तम विद्या सिद्ध करनेके लिए कठोर वृक्षोंसे युक्त इस वनमें आयी थीं ॥३६।। यहाँ रहते हुए हम लोगोंका यह बारहवाँ दिन है और इन दोनों मुनियोंको आये हुए आज आठवाँ दिवस है ॥३७॥ तदनन्तर उस दुष्ट अंगारकेतुने हम लोगोंको यहाँ देखा और उक्त पूर्वोक्त संस्कारके कारण वह क्रोधसे परिपूर्ण हो गया ॥३८।। तत्पश्चात् हम लोगोंका वध करनेके लिए उसने उसी क्षण दशों दिशाओंको धूम तथा अंगारकी वर्षा करनेवालो अग्निसे पिंजर वर्ण-पीत वर्ण कर दिया ॥३९॥ जो विद्या छह वर्षसे भी अधिक समयमें बड़ी कठिनाईसे सिद्ध होती है वह विद्या उपसर्गका निमित्त पाकर आज ही सिद्ध हो गयी ||४०।। हे महाभाग ! यदि इस आपत्तिके समय आप यहाँ नहीं होते तो निश्चित हो हम सब दोनों मुनियोंके साथ-साथ वनमें जल जातीं ॥४१।।
१. भर्ता म. । २. अस्मान् । न स: म. I लब्धवान ताः ख. । ३. परम् म.।
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