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एकपञ्चाशत्तमं पर्व
श्रीशैलस्य वियत्युच्चैर्विमानस्थस्य गच्छतः । बभूव सुगुणैर्युको द्वीपो दधिमुखोऽन्तरे ॥१॥ यस्मिन् दधिमुखं नामा प्रासादैर्दधिपाण्डुरैः । पुरं परममायामि' चारुकाञ्चनतोरणम् ॥२॥ नवमंघप्रतीकाशैरुद्यानैः कुसुमोज्ज्वलैः । प्रदेशा यस्य शोमन्ते सनक्षत्राम्बरोपमाः ॥३॥ स्फटिकस्वच्छकलिला बाप्यः सोपानशोभिताः । पद्मोपलादिभिश्छन्ना यत्र भान्ति क्वचित् क्वचित् ॥४॥ तस्मिन् विप्रकृष्ट तु देशे नगरगोचरात् । बृहत्तणलतावल्लीद्रुमकण्टकसंकटे ॥५॥ शुष्कागकतसंरोधे रौद्रश्वापदनादिते । घोरेऽतिपरुषाकारे प्रचण्डानिलचजले ॥६॥ पतितोदारवृक्षौधे महाभयसमावहे । विशुद्धक्षारसरसि कङ्कगृद्वादिसेविते ॥७॥ 'दुर्वने विजने राजन् साधुयुग्मं नभश्चरम् । अष्टाहं लम्बितभुजं योगमुग्रमुपाश्रितम् ॥८॥ तस्य क्रोश चतुर्मागमात्रदेशे व्यवस्थिताः । मनोज्ञनयनाः कन्याः सितवना जटाधराः ॥९॥ तघ्यन्ते विधिवद्घोरं तपस्तिस्रः सुचेतसः । शोभालोकत्रयस्येव नवभूषणतां गताः ॥१०॥ अथासौ साधुयुगलं ग्रस्यमानं महाग्निना । अञ्जनातनयोऽपश्यत् पादपद्वयनिश्चलम् ॥११॥ असमाप्तवताः ताश्च कन्याः लावण्यपूरिताः । उद्गमधुमजालेन स्पृष्टा वहलवर्तिना ॥१२॥ अथातस्थौ सनिर्ग्रन्थौ युक्तयोगी शिवस्पृहौ । त्यक्तारागादिसंगेच्छौ निरस्तांशुकभूषणौ ॥१३॥
अथानन्तर जब हनुमान् विमानमें बैठकर आकाशमें बहुत ऊँचे जा रहा था तब उत्तम 'गुणोंसे युक्त दधिमुख नामक द्वीप बीचमें पड़ा ॥१।। उस दधिमुख द्वीपमें एक दधिमुख नामका नगर था जो दहीके समान सफेद महलोंसे सुशोभित तथा लम्बायमान स्वर्णके सुन्दर तोरणोंसे यक्त था ॥२॥ नवोन मेघके समान श्याम तथा पूष्पोसे उज्ज्वल उद्यानासे उसके सुशोभित हो रहे थे मानो नक्षत्रोंसे सहित आकाशके प्रदेश ही हों ॥३॥ उस नगरमें जहाँ-तहाँ स्फटिकके समान स्वच्छ जलसे भरी, सीढ़ियोंसे सुशोभित एवं कमल तथा उत्पल आदिसे आच्छादित वापिकाएँ सुशोभित थीं ।।४॥ नगरसे दूर चलकर एक महाभयंकर वन मिला जो बड़े-बड़े तृणों, लताओं, बेलों, वृक्षों और काँटोंसे व्याप्त था ॥५॥ वह वन सूखे वृक्षोंसे घिरा था, भयंकर जंगली पशुओंके शब्दसे शब्दायमान था, भयंकर था, अत्यन्त कठोर था, प्रचण्ड वायुसे चंचल था, गिरे हुए बड़े-बड़े वृक्षोंके समूहसे युक्त था, महाभय उत्पन्न करनेवाला था, अत्यन्त खारे जलके सरोवरोंसे सहित था, कंक, गृद्ध आदि पक्षियोंसे सेवित था तथा मनुष्योंसे रहित था । गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस वनमें दो चारण ऋद्धिधारी मुनि आठ दिनका कठिन योग लेकर विराजमान थे। उनकी भुजाएँ नीचेको ओर लटक रही थीं ॥६-८॥ उन मुनियोंसे पावकोश दूरीपर तीन कन्याएँ, जिनके नेत्र अत्यन्त मनोहर थे, जो शुक्लवस्त्रसे सहित थीं, जटाएं धारण कर रही थीं, शुद्ध हृदयसे युक्त थीं, तीन लोककी मानो शोभा थीं। और नूतन आभूषण स्वरूप थीं, विधिपूर्वक घोर तप कर रही थीं ॥९-१०॥
__ तदनन्तर हनुमान्ने देखा कि दोनों मुनि महाअग्निसे ग्रस्त हो रहे हैं और वृक्ष युगलके समान निश्चल खड़े हैं ।।११।। जिनका व्रत समाप्त नहीं हआ था तथा जो लावण्यसे युक्त थीं ऐसी वे तीनों कन्याएं भी निकलते हुए अत्यधिक धूमसे स्पृष्ट हो रही थीं ॥१२॥ उन्हें देख १. मायाति म. । २. विप्रकृष्टेन म. । ३. घोरे पतिरुपाकारे म.। ४. दुर्जने म.। ५. राजत् म.। ६. गतः म. । ७. उद्गमद्धूम- म. ।
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