Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 329
________________ पञ्चाशत्तमं पर्व असौ प्रसन्न कोर्तिमें पुत्रो माहात्म्यसंगतः । त्वया पराजितः प्राप्तो रोर्बु चित्रमिदं परम् ॥४०॥ अहो पराक्रमो भद्र तव धैर्यमहो परम् । अहो रूपमनौपम्यमहो संग्रामशौण्डता ॥४१॥ प्रजातेन स्वया वत्स महानिश्चययोगिना । कुलमुद्योतितं सर्वमस्मदीयं सुकर्मणा ॥४२॥ विनयायेगुणैर्युक्तो राशिः परमतेजसः । कल्याणमूर्तिरस्यथं कल्पवृक्षस्त्वमुद्गतः ॥४३॥ जगतो गुरुभूतस्त्वं बान्धवानां समाश्रयः । दुःखादित्यप्रतप्तानां समस्तानां घनाघनः ॥४४॥ इति प्रशस्य तं स्नेहादुदनाक्षश्चलस्करः । अजिघ्रन्मस्तके ननं पुलकी परिषस्वजे ॥४५॥ प्रणम्य वायुपुत्रोऽपि तमार्य विहिताम्जलिः । अतितिक्षद्विनीतात्मा क्षणाद्यातोऽन्यतामिव ॥४६॥ मया शिशुतया किंचिदार्य यत्ते विचेष्टितम् । दोषमेवं समस्तं मे प्रतीक्ष्य अन्तुमर्हसि ॥४७॥ समस्तं च समाख्यातं तेनागमनकारणम् । पद्मागमादिकं यावदारमागमनमादृतम् ॥४८॥ अहमार्य गमिष्यामि त्रिकूटमतिकारणम् । स्वं किष्किन्धपुरं गच्छ कार्य दाशरथेः कुरु ॥४९॥ इत्युक्त्वा वायुसंभूतः खमुत्पत्य ययौ सुखम् । त्रिकूटामिमुखः क्षिप्रं सुरलोकमिवामरः ॥५०॥ गत्वा महेन्द्र केतुश्च तनयां नयकोविदः । प्रसन्नकीर्तिना सार्धं वत्सलः समपूजयत् ॥५१॥ मातापितृसमायोगं सोदरस्य च दर्शनम् । अञ्जनासुन्दरी प्राप्य जगाम परमां तिम् ॥५२॥ महेन्द्र निभृतं श्रुत्वा किष्किन्धामिमुखोऽगमन् । विराधितप्रभृतयस्तोषमाययुरुत्तमम् ॥५३॥ . माहात्म्यसे युक्त था ऐसा मेरा पुत्र प्रसन्नकोति तुमसे पराजित हो बन्धनको प्राप्त हुआ, यह बड़ा आश्चर्य है ॥३९-४०।। अहो भद्र ! तुम्हारा पराक्रम अद्भुत है, तुम्हारा धेयं परम आश्चर्यकारी है, अहो तुम्हारा रूप अनुपम है और युद्धको सामर्थ्य भी आश्चर्यकारी है ॥४१॥ हे वत्स! धारण करनेवाले तुमने हमारे पूण्योदयसे जन्म लेकर हमारा समस्त कूल प्रकाशमान किया है ।।४२।। तू विनयादि गुणोंसे युक्त है, परम तेजकी राशि है, कल्याणकी मूर्ति है तथा कल्पवृक्षके समान उदयको प्राप्त हुआ है ॥४३॥ तू जगत्का गुरु है, बान्धवजनोंका आधार है और दुःखरूपी सूर्यसे सन्तप्त समस्त मनुष्योंके लिए मेघस्वरूप है ॥४४।। इस प्रकार प्रशंसा कर स्नेहके कारण जिसके नेत्रोंसे अश्रु छलक रहे थे तथा जिसके हाथ हिल रहे थे, ऐसे मातामह महेन्द्रने उसका मस्तक सूंघा और रोमांचित हो उसका आलिंगन किया ॥४५॥ वायुपुत्र-हनुमान्ने भी हाथ जोड़कर उन आर्य-मातामहको प्रणाम किया तथा क्षमाके प्रभावसे विनीतात्मा होकर वह क्षणभरमें ऐसा हो गया मानो अन्यरूपताको ही प्राप्त हुआ हो ॥४६।। उसने कहा कि हे आर्य ! मैंने लड़कपनके कारण आपके प्रति जो कुछ चेष्टा की है सो हे पूज्य ! मेरे इस समस्त अपराधको आप क्षमा करनेके योग्य हैं ।।४७|| उसने रामचन्द्रके आगमनको आदि लेकर अपने आगमन तकका समस्त वृत्तान्त बड़े आदरके साथ प्रकट किया ||४८|| उसने यह भी कहा कि हे आर्य ! मैं अत्यावश्यक कारणसे त्रिकूटाचलको जाता हूँ तब तक तुम किष्किन्धपुर जाओ और श्रीरामका काम करो॥४९॥ इतना कह हनुमान् आकाशमें उड़कर शीघ्र त्रिकूटाचलकी ओर सुखपूर्वक इस प्रकार गया जिस प्रकार कि देव स्वर्गकी ओर जाता है ॥५०॥ नीतिनिपुण तथा स्नेहपूर्ण राजा महेन्द्रकेतुने अपने प्रियपत्र प्रसन्नकोतिके साथ जाकर पूत्री-अंजनाका सम्मान किया ॥५१॥ अजना सुन्दरी, मातापिताके साथ समागम तथा भाईका दर्शन प्राप्त कर परम धैर्यको प्राप्त हई ॥५२॥ राजा महेन्द्रको आया सुनकर किष्किन्धाका पति सुग्रीव उसे लेनेके लिए सम्मुख गया तथा विराधित आदि उत्तम सन्तोषको प्राप्त हुए ॥५३॥ १. क्षणाघातोऽन्यतामिव म. । २. दत्ते म. । ३. हे पूज्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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