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द्विपञ्चाशत्तमं पर्व
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दध्यौ च मारयाम्येतं कथं दोषमपि श्रितम् । रूपेणानुपमानेन छिन्ते मर्माणि यो मम ॥ ५६॥ यद्यनेन समं सक्ता कामभोगोदय द्युतिम् । न निषेवे च लोकेऽस्मिन् ततो मे जन्म निष्फलम् ॥५७॥ अतः सत्पथमुद्दिश्य स्वनामाङ्कं हनूमते । प्रजिघाय शरं मुग्धा विह्नलेनान्तरात्मना ॥ ५८ ॥ पराजिता त्वया नाथ साहं मन्मथसायकैः । सुरैरपि न या शक्या जेतुं संघातवर्तिभिः ॥ ५९ ॥
२
प्रवाच्य मारुतिर्वाणमङ्कं स्वैरमुपागतम् । धृतिं परां परिप्राप्तो रथादरमवातरत् ॥६०॥
उपसृत्य च तां कन्यां मृगेन्द्रसमविक्रमः । कृत्वाङ्के गाढमालिङ्गत् कामो रतिमिवापराम् ॥ ६१ ॥ अथ प्रशान्तवैरा सावत्र दुर्दिनलोचना । तातप्रयाणशोकार्ता जगदे वायुसूनुना ॥ ६२॥
मा रोदीः सौम्यवक्त्रे स्वमलं शोकेन भामिनि । विहिता गतिरेषैव क्षात्रधर्मे सनातने ।। ६३ ॥ ननु ते ज्ञातमेवैतद्यथा राज्यविधौ स्थिताः । पित्रादीनपि निघ्नन्ति नराः कर्मबलेरिताः ॥ ६४॥ वृथा रोदिषि किन्त्वेतद्ध्यानमार्तं विवर्जय । अस्मिन् हि सकले लोके विहितं भुज्यते प्रिये ॥ ६५॥ निहितोऽयमनेनेति द्विडत्र व्याजमात्रकम् । आयुः कर्मानुभावेन प्राप्तकालो विपद्यते ॥ ६६ ॥ वचोभिरेभिरन्यैश्च मुक्तशोका व्यराजत । सहिता वातिना यद्वदिन्दुना निर्धना निशा ||६७ || प्रेमनिर्झरपूर्णेन तयोरालिङ्गनेन सः । संग्रामजः श्रमो दूरमथायातः सुचेतसोः ||६८||
हनुमान्को मारनेके लिए उठायी हुई शक्ति शीघ्र ही संहृत कर ली - पीछे हटा ली ।।५३ - ५५ ॥ वह विचार करने लगी कि यद्यपि यह पिताके मारनेसे दोषी है तो भी जो अनुपम रूपसे मेरे मर्मस्थान विदार रहा है ऐसे इसे किस प्रकार मारूँ ? || ५६ ॥ | यदि इसके साथ मिलकर कामभोगरूपी अभ्युदयका सेवन न करूँ तो इस लोक में मेरा जन्म लेना निष्फल है ॥५७॥ तदनन्तर विह्वल मनसे मुग्ध उस लंकासुन्दरीने समीचीन मार्ग के उद्देश्य से अपने नामसे अंकित एक बाण हनुमान् के पास भेजा ||५८|| उस बाण में उसने यह भी लिखा था कि हे नाथ ! जो में इकट्ठे हुए देवोंके द्वारा भी नहीं जीती जा सकती थी वह में, आपके द्वारा कामके बाणोंसे पराजित हो गयी ||५९॥ गोद में आये हुए उस बाणको अच्छी तरह बाँच कर परम धैयँको प्राप्त हुआ हनुमान् शीघ्र ही रथसे उतरा ||६०|| और उसके पास जाकर सिंहके समान पराक्रमी हनुमान् उसे गोद में बिठा उसका ऐसा गाढ आलिंगन किया मानो कामदेवने दूसरी रतिका ही आलिंगन किया हो ॥ ६१ ॥
तदनन्तर जिसका वैर शान्त हो गया था, जिसके नेत्रोंसे दुर्दिन की भांति अविरल अश्रुओंकी वर्षा हो रही थी तथा जो पिताके मरण-सम्बन्धी शोकसे पीड़ित थी ऐसी उस लंकासुन्दरी से हनुमान् ने कहा ||६२ || कि हे सौम्यमुखि ! रोओ मत । हे भामिनि ! शोक करना व्यर्थ है । सनातन क्षत्रिय धर्मंकी तो यही रीति है || ६३|| यह तो तुम्हें विदित ही है कि राजकार्यमें स्थित मनुष्य, कम्बलसे प्रेरित हो पिता आदिको भी मार डालते हैं || ६४ || व्यर्थं ही क्यों रोती हो ? इस आध्यानको छोड़ो । हे प्रिये ! इस समस्त संसारमें अपना किया हुआ ही सब भोगते हैं अर्थात् जो जैसा करता है वैसा भोगता है || ६५ || 'यह शत्रु इसके द्वारा मारा गया' यह कहना तो छलमात्र है । यथार्थमें तो आयुकर्मके प्रभावसे समय पाकर यह जीव मरता है || ६६ || इस प्रकार इन तथा अन्य वचनों से जिसका शोक छूट गया था ऐसी लंकासुन्दरी हनुमान् के साथ इस प्रकार सुशोभित हो रही थी जिस प्रकार कि मेघरहित रात्रि चन्द्रमाके साथ सुशोभित होती है || ६७|| तदनन्तर उत्तम हृदयके धारक उन दोनों का संग्रामसे उत्पन्न हुआ श्रम, प्रेमरूपी निर्झरसे परिपूर्ण आलिंगनके द्वारा दूर भाग गया ||६८||
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१. द्युतिः म. कामभोगादय द्युतिम् ज. ॥ ४. सौम्यवस्त्रे म. । ५. वातस्यापत्यं पुमान् वाति:, तेन हनूमता ।
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२. प्रोवाच म. । ३. प्रशान्तवेरा + असो + अस्रदुर्दिन ।
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