________________
द्विपञ्चाशत्तम पर्व
३१९ स्वामिनो दृष्टिमार्गस्थाः सुमटाः कृतगर्जिताः । जीवितेष्वपि विस्नेहा बभूवुः किमिहोच्यताम् ॥२८॥ ततः कपिध्वजैर्योधाश्चिरंकृतमहाहवाः । वज्रायुधस्य निर्भग्नाः क्षणान्नेषुरितस्ततः ॥२९॥ चक्रेणानिलसूनुश्च तेजोऽहरत् विद्विषाम् । ऋक्षविम्बमिवाकाशादपातयदरेः शिरः ॥३०॥ संख्ये पितुर्वधं दृष्ट्वा तं लङ्कासुन्दरी तदा । नियम्य कृच्छुतः शोकममर्षविषदूषिता ॥३१॥ जवनाश्वरथारूढा कुण्डलोद्योतितानना । शरासनायतोरस्का कुञ्चितभ्रलतायुगा ॥३२॥ उल्केव संगतादित्यतेजोमण्डलधारिणी । धूमोद्गारसमायुक्ता घनप्राग्मारवर्तिनी ॥३३॥ संरम्भवशसंफुल्ललोहिताम्मोजलोचना । क्रूरसंदृष्टबिम्बोष्ठी क्रुद्धव श्रीः शचीपतेः ॥३॥ अधावदिपुमुद्धत्य कथमाना मनोहरा । मया श्रीशैल दृष्टोऽसि तिष्ठ ते शक्तिरस्ति चेत् ॥३५।। अद्य ते रावणः ऋद्धो नभश्वरमहेश्वरः । करिष्यति यदेतत्ते करोमि हतचेष्टित ॥३६॥ इयं यमालयं पापं भवन्तं प्रेषयाम्यहम् । दिग्मूढ इव जातस्त्वमनिष्टस्थानगोचरः ॥३७॥ तस्यास्त्वरितमायान्त्या यावच्छत्रमपातयत् । बाणेन तावदेतस्य तया चापं द्विधा कृतम् ॥३०॥ सा यावदगृहीच्छक्ति तावन्मारुतिना शरैः । नमश्छन्नं समायान्ती भिन्ना शक्तिश्च सान्तरे ॥३९॥ सा विद्याबलगम्भीरा वज्रदण्डसमान् शरान् । परशुकुन्तचक्राणि शतघ्नीमुशलान् शिलाः ॥४०॥
बवर्ष वायुपुत्रस्य रथे हिमवदुन्नते । विकाले वारिणो भेदान् मेघसंध्या यथोन्नता ॥४१॥ स्वामीके द्वारा किये हए सम्मान और तिरस्कारमें होता है।
रा किये हुए सम्मान और तिरस्कारमें होता है ॥२७॥ जो योद्धा स्वामीकी दष्टिके मार्गमें स्थित थे अर्थात स्वामी जिनकी ओर दष्टि उठाकर देखता था वे योद्धा गर्जना करते हए प्राणोंका भी स्नेह छोड़ देते थे इस विषयमें अधिक क्या कहा जाये ? ॥२८॥ तदनन्तर जिन्होंने चिरकाल तक बड़े-बड़े युद्ध किये थे ऐसे वज्रायुद्धके योद्धा वानरोंके द्वारा क्षणभरमें पराजित होकर इधर-उधर नष्ट हो गये-भाग गये ।।२९।। और हनुमान्ने चक्रके द्वारा शत्रुओंका तेज हर लिया तथा नक्षत्र बिम्बके समान शत्रुका शिर काटकर आकाशसे नीचे गिरा दिया ||३०|| युद्ध में पिताका वध देख वज्रायुधको पुत्री लंकासुन्दरी कठिनाईसे शोकको रोककर क्रोधरूपी विषसे दूषित हो हनुमान्की ओर दौड़ी। उस समय वह वेगशाली घोड़ोंके रथपर बैठी थी, कुण्डलोंके प्रकाशसे उसका मुख प्रकाशित हो रहा था, धनुषके समान उसका वक्षःस्थल आयत था, उसकी दोनों भृकुटियां टेढ़ी हो रही थीं, वह ऐसी जान पड़ती थी मानो उल्का ही प्रकट हुई हो, वह सूर्यके समान तेजका मण्डल धारण कर रही थी, धूमके उद्गारसे सहित थी, अर्थात् उसके शरीरसे कुछकुछ धुआँ-सा निकलता दिखता था और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो मेघसमूहके बीचमें विद्यमान थी, क्रोधके कारण उसके नेत्र फूले हुए लाल कमलोंके समान जान पड़ते थे, वह क्रोधसे अपना ओठ चाब रही थी, तथा ऐसी जान पड़ती थी मानो क्रोधसे भरी इन्द्रकी लक्ष्मी ही हो ॥३१-३४॥ वह देखने में सुन्दर थी तथा अपनी प्रशंसा कर रही थी, इस तरह धनुषपर बाण चढ़ाकर वह दौड़ी और बोली कि अरे श्रीशैल ! मैंने तुझे देख लिया है, यदि तुझमें कुछ शक्ति है तो खड़ा रह ॥३५।। आज कुपित हुआ विद्याधरोंका राजा रावण तेरा जो कुछ करेगा रे नीच ! वही मैं तेरा करती हूँ ॥३६।। यह मैं तुझ पापीको यमराजके घर भेजती हूँ, तू दिग्भ्रान्तको तरह आज इस अनिष्ट स्थानमें आ पड़ा है ॥३७॥ वेगसे आती हुई लंकासुन्दरीका छत्र जबतक हनुमान्ने नीचे गिराया तबतक उसने एक बाण छोड़कर हनुमानके धनुषके दो टुकड़े कर दिये ॥३८॥ लंकासुन्दरी जबतक शक्ति नामक शस्त्र उठाती है तबतक हनुमान्ने बाणोंसे आकाशको आच्छादित कर दिया और आती हुई उसकी शक्तिको बीचमें हो तोड़ डाला ॥३९॥ विद्याबलसे गम्भीर लंकासुन्दरीने हनुमान्के हिमालयके समान ऊंचे रथपर वज्रदण्डके समान बाण, परशु, कुन्त, १. कच्छमाना म. । २. मनोहरं ख., ज., क.। ३ हतचेष्टितः म.। ४. इमं म. । ५. शिलान् म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org