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द्विपञ्चाशत्तमं पर्व
एवमुक्त्वा मरुत्पुत्रस्तद्विन्यस्तमहाबलः । तया मुक्तो विवेकिन्या त्रिकूटाभिमुखं ययौ ॥ ८३ ॥
दोधकवृत्तम्
चित्रमिदं परमत्र नृलोके, यत्परिहाय भृशं रसमेकम् । तत्क्षणमेव विशुद्धशरीरं जन्तुरुपैति रसान्तरसंगम् ॥ ८४ ॥ कर्मविचेष्टितमेतदमुष्मिन् किन्त्वथवाद्भुतमस्ति निसर्गे । सर्वमिदं स्वशरीरनिबद्धं दक्षिणमुत्तरतश्च खीहा' ॥ ८५॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे हनूमल्लङ्कासुन्दरी कन्यालाभाभिधानं नाम द्विपञ्चाशत्तमं पर्व ॥५२॥
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कैसी रूपवती है कि जिसने मेरुके समान धीर, वीर रावणका मन विचलित कर दिया है || ८२|| इस प्रकार कहकर तथा अपनी सेना उसीके पास छोड़कर हनुमान् उस विवेकवतीसे छूटकर त्रिकूटाचलकी ओर चला ॥८३॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस संसार में यह परम आश्चर्यको बात है कि प्राणी एक रसको छोड़कर उसो क्षण विशुद्ध रूपको धारण करनेवाले दूसरे रसको प्राप्त हो जाता है || ८४|| सो इस संसार में यह प्राणियोंके कर्म की ही अद्भुत चेष्टा है । जिस प्रकार सूर्यकी गति कभी दक्षिण दिशा की ओर होती है और कभी उत्तर दिशा की ओर । उसी प्रकार प्राणियोंके शरीर से सम्बन्ध रखनेवाला यह सब व्यवहार कर्मकी चेष्टानुसार कभी इस रसरूप होता है और कभी उस रसरूप होता है ॥८५॥
इस प्रकार आर्षं नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराणमें हनुमान्को लंकासुन्दरी कन्याकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला बावनवाँ पर्व समाप्त हुआ || ५२॥
१. चरती हो म., ब.
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