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त्रिपञ्चाशत्तमं पर्व
मगधेन्द्र ततो वातिः प्रभावोदयसंगतः । लङ्कां विवेश निःशंकः स्वल्पानुगसमन्वितः ॥१॥ द्वारे च रचिताभ्यर्चे विभीषणनिकेतनम् । विवेश योग्यमेतेन सम्मानं च समाहृतः ॥ २॥ | ततः स्थित्वा क्षणं किंचित् संस्पृष्टाभिः परस्परम् । वार्ताभिरिति सद्वाक्यं व्याजहार मरुत्सुतः ॥ ३॥ उचितं किमिदं कर्तुं यद्वास्यार्द्धपतिः स्वयम् । कुरुते क्षुद्रवत्कश्चिच्चोरणं परयोषितः || ४ || मर्यादानां नृपो मूलमापगानां यथा नगः । अनाचारे स्थिते तस्मिन् लोकस्तत्र प्रवर्तते ॥ ५ ॥ ईदृशे चरिते कृत्ये सर्वलोकविनिन्दिते । सहनीयं समस्तानां दुःखमेष्यति नो ध्रुवम् ||६|| तत् क्षेमंकरमस्माकं हिताय जगतां तथा । उच्यतां रावणः शीघ्रं वचो न्यायानुपालकम् ॥ ७ ॥ यथा किल द्वये लोके निन्दनीयं विचेष्टितम् । मा कार्षीः जगतो नाथ कीर्तिविध्वंसकारणम् ||८|| विमलं चरितं लोके न केवलमिहेष्यते । किन्तु गीर्वाणलोकेऽपि रचिताञ्जलिभिः सुरैः ॥ ९ ॥ कैक्सीनन्दनोऽवोचद् बहुशोऽभिहितो मया । ततः प्रभृति नैवासौ मया संभाषते समम् ||१०| तथापि भवतो वाक्यान् श्वः समेत्य नरेश्वरम् । वक्तास्मि किन्तु दुःखेन त्यक्ष्यस्येतदसौ ग्रहम् ॥११॥ researदशं जातं सीताया वल्मनोज्झने । तथापि विरतिः काचिलङ्केन्द्रस्य न जायते ||१२|| तच्छ्रुत्वा वचनं सद्यः महाकारुण्य संगतः । प्रमदाह्वयमुद्यानं मारुतिर्गन्तुमुद्यतः ॥ १३॥ अपश्यच्च लताजालैस्तन्नबैराकुलीकृतम् । अरुणैः पल्लवैः ब्याप्तं वरस्त्रीकरचारुभिः ||१४||
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अथानन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मगधराज ! प्रभाव और अभ्युदयसे सहित तथा स्वल्प अनुचरोंसे युक्त हनुमान्ने निःशंक होकर लंकामें प्रवेश किया || १ || वहाँ जिसके द्वारपर सत्कार किया गया था ऐसे विभीषणके महल में प्रवेश किया और विभीषणने यथायोग्य उनका सम्मान किया ||२|| तदनन्तर वहाँ परस्पर इधर-उधर की कुछ वार्ताएँ करते हुए क्षण भर ठहर कर हनुमान्ने इस प्रकारके सवचन कहे कि तीन खण्डका अधिपति किसी क्षुद्र मनुष्यकी तरह पर-स्त्रीकी चोरी करता है सो क्या ऐसा करना उचित है ? || ३-४ || जिस प्रकार पर्वत नदियोंका ल है उसी प्रकार राजा मर्यादाओंका मूल है । यदि राजा स्वयं अनाचार में स्थित रहता है तो उसकी प्रजा भी अनाचार में प्रवृत्ति करने लगती है ||५|| फिर ऐसा कार्यं तो सर्वलोक विनिन्दित है— सब लोगों की निन्दाका पात्र है । इसके करने पर सब लोगोंको दुःख सहन करना पड़ता है और हम लोगों को तो निश्चित ही दुःख प्राप्त होता है || ६ || इसलिए हम सबके कल्याणके लिए शीघ्र ही रावणसे ऐसे वचन कहिए जो न्यायकी रक्षा करनेवाले हों ||७|| उन्हें बतलाइए कि हे जगत् के नाथ ! दोनों लोकोंमें निन्दनीय तथा कीर्तिको नष्ट करनेवाली चेष्टा मत कीजिए ||८|| निर्मल-निर्दोष चरित्रकी न केवल इस लोकमें चाह है अपितु स्वर्गलोकमें देव भी हाथ जोड़कर उसकी चाह करते हैं ||९|| तदनन्तर विभीषण ने कहा कि मैंने रावणसे अनेक बार कहा है पर वह उस समयसे मेरे साथ बात ही नहीं करता है || १०|| फिर भी आपके कहने से मैं कल राजाके पास जाकर कहूँगा किन्तु यह निश्चित है कि वह बड़े दुःखसे ही इस हठको छोड़ेगा || ११|| यद्यपि आज सीताको आहार पानी छोड़े ग्यारहवाँ दिन है तथापि लंकाधिपतिको कुछ भी विरति नहीं है - इस कार्यसे रंचमात्र भी विरक्तता नहीं है || १२ || विभीषणके यह वचन सुन महादयाभावसे युक्त हनुमान् प्रमदोद्यानमें जाने के लिए उद्यत हुआ ||१३|| जाकर उसने उस प्रमदोद्यानको देखा जो कि
१. त्रिखण्डभरताधिप: : २. विभीषणः । ३ त्यज्यते न ह्यसो म । ४. वल्लभोज्झने म. । ५. स्तत्र वैराकुलीकृतम् म. ।
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