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पपपुराणे प्रलम्बितमहाबाहू प्रशान्तवदनाकृती। 'युगान्तापितसदृष्टी प्रतिमास्थानमाश्रितौ ॥१४॥ मृत्युजीवननिःकाक्षावनधौ शान्तमानसौ । समप्रियाप्रियासंगौ समपाषाणकाञ्चनौ ॥१५॥ दावेन महता राजन् तेनात्यासन्नवर्तिना । अभिभूतौ समालोक्य वात्सल्यं कर्तुमुद्यतः ॥१६॥ आकृष्य सागरजलं मेघहस्तः ससंभ्रमः । अवर्षदुन्नतो व्योम्नि परमं भक्तिसंगतः ॥१७॥ सुभृशं तेन वह्निः स वारिपूरेण नाशितः । महाक्रोध इबोद्भूतः क्षान्तिमावेन साधुना ॥१८॥ यावच्च कुरुते पूजां भक्त्या पवननन्दनः । तयोर्भदन्तयो नापुष्पादिद्रव्यसंपदा ॥१९॥ तावत्ताः सिद्धसंसाध्या मेरुं कृत्वा प्रदक्षिणम् । तत्सकाशमनुप्राप्ताः कुमार्यः सुमनोहराः ॥२०॥ प्रणेमुश्च समं तेन साधू ध्यानपरायणौ । विनयान्वितया बुद्धया प्रशशंसुश्च मारुतिम् ॥२१॥ अहो जिनेश्वरे भक्तिर्वजता क्वापि यद्रुतम् । स्वया तात परित्राता वयं साधुसमाश्रयात् ॥२२॥ अस्मद्वारसमायातो महानयमपप्लवः । स्तोकेनाप्तो न योगिभ्यामहो नो भवितव्यता ।।२३॥ अथाञ्जनात्मजोऽपृच्छदेवं संशुद्धमानसः। भवन्त्य इह निःशून्ये का वनेऽत्यन्तभीषणे ॥२४॥ अवोचज्ज्यायसी तासां पुरे दधिमखाहये । अत्र गन्धर्वराजस्य वयं तिस्रोऽमरासुताः ॥२५॥ प्रथमा चन्द्र लेखाख्या ज्ञेया विद्युत्भमा ततः । अन्या तरङ्गमालेति सर्वगोत्रस्य वल्लमाः ॥२६॥
हनुमान्के हृदयमें उन सबके प्रति बड़ी आस्था उत्पन्न हुई। तदनन्तर जो योग अर्थात् ध्यानसे युक्त थे, मोक्षको इच्छासे सहित थे, जिन्होंने रागादि परिग्रहकी इच्छा छोड़ दी थी, वस्त्र तथा आभूषण दूर कर दिये थे, भुजाएँ नीचेकी ओर लटका रखी थीं, जिनके मुखकी आकृति अत्यन्त शान्त थी, युगप्रमाण दूरीपर जिनकी दृष्टि पड़ रही थी, जो प्रतिमा योगसे विराजमान थे, जीवन और मरणको आकांक्षासे रहित'थे, निष्पाप थे, शान्तचित्त थे, इष्ट-अनिष्ट समागममें मध्यस्थ थे, तथा पाषाण और कांचनमें जो समभाव रखते थे ऐसे उन दोनों मुनियोंको अत्यन्त निकटवर्ती बड़ी भारी दावानलसे आक्रान्त देख, हे राजन् ! हनूमान् वात्सल्यभाव प्रकट करनेके लिए उद्यत हुआ ॥१३-१६॥
भक्तिसे भरे हनुमान्ने शीघ्रतासे समुद्रका जल खींच, मेघ हाथमें धारण किया और आकाशमें ऊँचे जाकर अत्यधिक वर्षा की ॥१७॥ उस बरसे हुए जलप्रवाहसे वह दावाग्नि उस प्रकार शान्त हो गयी जिस प्रकार कि उत्पन्न हआ महाक्रोध, मनिके क्षमाभावसे शान्त हो जाता है ॥१८|| भक्तिसे भरा हनुमान् जबतक नाना प्रकारको पुष्पादि सामग्रीसे उन दोनों मुनियोंकी पूजा करता है तबतक जिनके मनोरथ सिद्ध हो गये थे ऐसी वे तीनों मनोहर कन्याएँ मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देकर उसके पास आ गयीं ॥१९-२०॥
उन्होंने ध्यानमें तत्पर दोनों मुनियोंको हनुमान्के साथ-साथ विनयपूर्वक नमस्कार किया तथा हनुमान्की इस प्रकार प्रशंसा की कि अहो ! तुम्हारी जिनेन्द्रदेव में बड़ी भक्ति है जो शीघ्रतासे कहीं अन्यत्र जाते हुए तुमने मुनियोंके आश्रयसे हम सबकी रक्षा की ॥२१-२२।। हमारे निमित्तसे यह महाउपद्रव उत्पन्न हुआ था सो मुनियोंको रंचमात्र भी प्राप्त नहीं हो पाया। अहो ! हमारी भवितव्यता धन्य है ।।२३।।
अथानन्तर पवित्र हदयके धारक हनुमानने उनसे इस प्रकार पूछा कि इस अत्यन्त भयंकर निर्जन वनमें आप लोग कौन हैं ? ॥२४॥ तदनन्तर उन कन्याओं में जो ज्येष्ठ कन्या थी वह कहने लगी कि हम तीनों दधिमुख नगरके राजा गन्धर्वकी अमरा नामक रानीकी पुत्रियां हैं ॥२५।। इनमें प्रथम कन्या चन्द्रलेखा, दूसरो विद्युत्प्रभा और तीसरो तरंगमाला है। हम सभी
१. युगान्तावित-म. । २. दानेन म. । ३. साधु म. । ४. कानने ख., म. । कुवने क. ।
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