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पञ्चाशत्तम पर्व
३०९
प्रलम्बाम्बुदवृन्दोरुनादा दुन्दुभयस्ततः । महालम्पाकभेर्यश्च पटहाश्च समाहताः ॥१४॥ ध्माताः शङ्खा जंगरकम्पा मटैरुत्कटचेष्टितैः । युद्धशौण्डैः समुत्कृष्टं समुल्लासितहेतिभिः ॥१५॥ श्रुत्वा परबल प्राप्तं महेन्द्रः सर्वसेनया। प्रत्यक्षत विनिःक्रम्य मेघवृन्दमिवाचलः ॥१६॥ संप्रहारैस्ततो लग्नदृष्ट्वासीदन्निजं बलम् । चापमुद्यम्य माहेन्द्रिः प्राप्तश्छत्री रथस्थितः ॥१७॥ हनूमानिषुमिस्तस्य धनुस्तिसृभिरायतम् । चिच्छेद गुप्तिभिर्योगी यथामानं समुस्थितम् ॥१८॥ चापं यावद्वितीयं स गृह्णात्याकुलमानसः । शरैस्तावद्रथान्मुक्ताः प्रचण्डास्तस्य वाजिनः ।।१९॥ रथात्ते विगताः शीघ्राश्चपला बभ्रमुर्भृशम् । हषीकाणीव मनसों मुक्तानि विषयैषिणः ॥२०॥ माहेन्द्रिरथ संभ्रान्तो विमानं वरमाश्रितः । तदप्यस्य शरैलृप्तं मतं दुष्टमतेरिव ॥२१॥ माहेन्द्रिर्मुदितो भूयो विद्याबलविकारगः । पतत्रिचक्रकनकैर्युयुधेऽलातभासुरैः ॥२२॥ विद्ययाऽनिलपुत्रोऽपि तं शस्त्रौघमवारयत् । यथात्मचिन्तया योगी परीषहकदम्बकम् ॥२३॥ निर्दयोन्मुक्तशस्त्रोऽसावास्तृणानो महाग्निवत् । गृहीतो वायुपुत्रेण गरुडेनेव पन्नगः ॥२४॥ प्राप्तरोधं सुतं दृष्ट्रा महेन्द्रः क्रोधलोहितः । रथी मारुतिमभ्यार रामं सुग्रीवरूपवत् ॥२५॥ अर्काभस्यन्दनः सोऽपि हारिहारो धनुर्धरः । शूराणामग्रणी दीप्तो मातुः पितरमभ्यगात् ॥२६॥
करता हूँ ।।१३।। तदनन्तर ऐसा विचार कर उसने घूमते हुए मेघसमूहके समान उच्च शब्द करनेवाली दुन्दुभियाँ, महाविकट शब्द करनेवाली भेरियां और नगाड़े बजवाये ॥१४॥ उत्कृष्ट चेष्टाओंको धारण करनेवाले योद्धाओंने जगत्को कँपा देनेवाले शंख फूंके तथा शस्त्रोंको चमकानेवाले रणवीर योद्धाओंने जोरसे गर्जना की ।।१५।। परबलको आया सुन, राजा महेन्द्र सर्व सेनाके साथ बाहर निकला और जिस प्रकार पर्वत, मेघसमूहको रोकता है उसी प्रकार उसने हनुमान्के दलको रोका ॥१६।। तदनन्तर लगी हुई चोटोंसे अपनी सेनाको नष्ट होती देख, छत्रधारी, तथा रथपर बैठा हुआ राजा महेन्द्रका पुत्र धनुष तानकर सामने आया ॥१७॥ सो हनुमान्ने तीन बाण छोड़कर उसके लम्बे धनुषको उस तरह छेद डाला जिस तरह कि मुनि तीन गुप्तियोंके द्वारा उठते हुए मानको छेद डालते हैं ॥१८॥ वह व्याकुल चित्त होकर जबतक दूसरा धनुष लेता है तबतक हनुमान्ने तीक्ष्ण बाण चलाकर उसके चंचल घोड़े रथसे छुड़ा दिये ॥१९॥ सो रथसे छूटे हुए वे चंचल घोड़े शीघ्र ही इधर-उधर इस प्रकार घूमने लगे जिस प्रकार कि विषयाभिलाषी मनुष्यको मनसे छूटी हुई इन्द्रियाँ इधर-उधर घूमने लगती हैं ॥२०॥ अथानन्तर महेन्द्रका पुत्र घबड़ाकर उत्तम विमानपर आरूढ़ हुआ सो हनुमान्के वाणोंसे वह विमान भी उस तरह खण्डित हो गया जिस तरह कि किसी दुर्बुद्धिका मत खण्डित हो जाता है ।।२१।। तदनन्तर विद्याके बलसे विकारको प्राप्त हुआ महेन्द्रपुत्र पुनः हर्षित हो अलातचक्रके समान देदीप्यमान बाण, चक्र तथा कनक नामक शस्त्रोंसे युद्ध करने लगा ॥२२॥ तब हनुमान्ने भी विद्याके द्वारा उस शस्त्रसमूहको उस तरह रोका जिस तरह कि योगी आत्मध्यानके द्वारा परीषहोंके समूहको रोकता है ॥२३।। तदनन्तर जो निर्दयताके साथ शस्त्र छोड़ रहा था और प्रचण्ड अग्निके समान सब ओरसे आच्छादित कर रहा था ऐसे महेन्द्रपुत्रको हनुमान्ने उस तरह पकड़ लिया जिस तरह कि गरुड़ सर्पको पकड़ लेता है ॥२४॥ पुत्रको पकड़ा देख क्रोधसे लाल होता हुआ महेन्द्र रथपर सवार हो हनुमान्के सम्मुख उस तरह आया जिस तरह कि सुग्रीवका रूप धारण करनेवाला कृत्रिम सुग्रीव रामके सम्मुख आया था ॥२५॥
तदनन्तर जिसका रथ सूर्यके समान देदीप्यमान था, जो सुन्दर हारका धारक था, धनुर्धारी
१. जगत्पंका म. । २. संप्रहारे ततो लग्ने ज. । ३. मुक्ता निविषयैषिणः म. । ४. अर्काभः स्पन्दनः म. ।
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