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एकोनपञ्चाशत्तमं पर्व संदिदेश च सुग्रीवं यावदागमनं मम । स्थातव्यं तावदत्रैव प्रमादपरिवर्जितैः ।।११२॥ विमानं चारुशिखरमारूढो मारुतिस्ततः । विभाति मस्तके मेरोश्चैत्यालय इवोज्ज्वलः ॥११३॥ प्रययौ परया धुत्या सितच्छनोपशोभितः । विलसद्धंससंकाशैश्चामरैरुपजीवितः ॥११॥ वायुशावेसमैरश्वैर्जङ्गमौद्रिसमैगजैः । सैन्यैस्त्रिदशसंकाशैर्जगाम परितो वृतः ॥११५॥ एवं युक्तो महाभूत्या रामादिभिरुदीक्षितः । समाक्रम्य रवेर्मार्गमयासीत्सुनिरन्तरम् ।।११६॥
उपजातिवृत्तम् पूर्ण जगत्तिति जन्तुवगैर्नानाविधैरुत्तमभोगयुक्तः। कश्चित्तु तेषां परमार्थकृत्ये नियुज्यते यत्परमं यशस्तत् ।।११७॥ कृतं परेणाप्युपकारयोगं स्मरन्ति नित्यं कृतिनो मनुष्याः ।
तेषां न तुल्यो भुवने शशाङ्को न वा कुबेरो न रविन शक्रः ॥११॥ इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे हनुमत्प्रस्थानं नाम एकोनपञ्चाशत्तमं पर्व ॥४९॥
क्षोभयुक्त कर रहा था ॥११०-१११|| उसने सुग्रीवसे कहा कि जबतक मैं न आ जाऊँ तबतक आपको यहीं सावधान होकर ठहरना चाहिए ।।११२।।
तदनन्तर हनुमान् सुन्दर शिखरसे युक्त विमानपर आरूढ़ हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि सुमेरुके शिखरपर देदीप्यमान चैत्यालय सुशोभित होता है ।।११३।। तत्पश्चात् उसने परम कान्तिसे युक्त हो प्रयाण किया। उस समय वह सफेद छत्रसे सुशोभित था और उड़ते हुए हंसोंकी समानता करनेवाले चमर उसपर ढोरे जा रहे थे ॥११४॥ वह वायुके समान वेगशाली घोड़ों, चलते-फिरते पर्वतोंके समान हाथियों और देवोंके समान सैनिकोंसे घिरा हुआ जा रहा था ॥११५|| इस प्रकार जो महाविभूतिसे युक्त था, तथा राम आदि जिसे ऊपरको दृष्टि कर देख रहे थे, ऐसा वह हनुमान् सूर्यके मार्गका उल्लंघन कर निरन्तर आगे बढ़ा जाता था ।।११६।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! यह समस्त संसार नाना प्रकारके उत्तम भोगोंसे युक्त जन्तुओंसे भरा हुबा है । उनमें से कोई विरला पुरुष ही परमार्थरूप कार्यमें लगता है तथा परम यशको प्राप्त होता है ॥११७।। जो उत्तम मनुष्य दूसरेके द्वारा किये हुए उपकारका निरन्तर स्मरण रखते हैं इस संसारमें उनके समान न चन्द्रमा है, न कुबेर हैं, न सूर्य है और न इन्द्र ही है ॥११८॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित, पद्मपुराणमें हनुमानके प्रस्थानका
वर्णन करनेवाला उनचासवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥४९॥
१. दंश- म. । २. वायुवेग म. । ३. जगामाद्रि- म. ।
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