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पद्मपुराणे तयोरभन्महरसंख्यं क्रकचासिशिलीमुखैः । परस्परकृताधातं वायुवश्याब्दयोरिव ॥२७॥ सिंहाविव महारोषौ तावुद्धतबलान्वितौ । ज्वलत्स्फुलिङ्गरक्ताक्षौ श्वसन्तौ भुजगाविव ॥२८॥ परस्परकृताक्षेपौ गवंहासस्फुटस्वनौ । धिक् ते शौर्यमहो युद्धमित्यादिवचनोयतौ ॥२९॥ चक्रतुः परमं युद्धं मायाबलसमन्वितौ । हाकारजयकारादि कारयन्तौ मुहुर्निजैः ॥३०॥ महेन्द्रोऽथ महावीर्यो विक्रियाशक्तिसंगतः । क्रोधस्फुरितदेहश्रीर्मुमोचायुधसंहतिम् ॥३१॥ भुषुण्ढीः परशून् बाणान् शतघ्नीर्मुद्गरान् गदाः । शिखराणि च शैलानां शालन्यग्रोधपादपान् ॥३२॥ एतैरन्यैश्च विविधैरायुधौधर्मरुत्सुतः । न विव्यथे यथा शैलो महामेघकदम्बकैः ॥३३॥ तद्दिव्यमायया सृष्टं शस्त्रवर्ष महेन्द्रजम् । उल्काविद्याप्रभावेण वायुसूनुरचूर्णयत् ॥३४॥ उत्पत्य च रथे तस्य निपत्य सुमहाजवः । ककुष्करिकराकारकराभ्यां कृतरोधनम् ॥३५॥ मातामहं समादाय बलं बिभ्रदनुत्तमम् । दत्तसाधु स्वनः शूरैः समारोहन्निजं रथम् ॥३६॥ उल्कालागूलपाणिं तं दौहित्रं परमोदयम् । प्रशंसितुं समारब्धो महेन्द्रः सौम्यया गिरा ॥३७॥ अहो ते वत्स माहात्म्यं परमेतन्मया श्रुतम् । पूर्वमासीदिदानीं तु नियतं प्रत्यक्षगोचरम् ॥३८॥
आसीद्देवेन्द्रयुद्धेऽपि निर्जितो यो न केनचित् । विजयानगस्योर्ध्वमहाविद्यायुधाकुले ॥३९॥ था, शरोंमें श्रेष्ठ था तथा अतिशय देदीप्यमान था ऐसा हनुमान् भी माताके पिता राजा महेन्द्रके सम्मुख गया ॥२६॥ तदनन्तर वायके वशीभूत दो मेघोंमें जिस प्रकार परस्पर टक्कर होती है उसी प्रकार उन दोनोंमें करोंत, खड्ग तथा बाणोंके द्वारा परस्पर एक दूसरेका घात करनेवाला महायुद्ध हुआ ॥२७॥ जो सिंहोंके समान महाक्रोधी तथा उत्कट बलसे सहित थे, जिनके नेत्र देदीप्यमान तिलगोंके समान लाल थे, जो सर्पोके समान साँसें भर रहे थे-फुकार रहे थे, जो एक दूसरेपर आक्षेप कर रहे थे, जिनके अहंकारपूर्ण हास्यका स्फुट शब्द हो रहा था, 'तेरी शूर-वीरताको धिक्कार है, अहो ! युद्ध करने चला है' जो इस प्रकारके शब्द कह रहे थे, जो मायाबलसे सहित थे और जो अपने पक्षके लोगोंसे कभी हाहाकार कराते थे तो कभी जय-जयकार कराते थे ऐसे हनुमान् तथा राजा महेन्द्र दोनों ही चिरकाल तक परमयद्ध करते रहे ॥२८-३०॥ तदनन्तर जो महाबलवान् था, विक्रिया शक्तिसे संगत था और क्रोधसे जिसके शरीरकी शोभा देदीप्यमान हो रही थी ऐसा महेन्द्र हनूमान्के ऊपर शस्त्रोंका समूह छोड़ने लगा ॥३१।। भुषुण्डो, परशु, बाण, शतघ्नी, मुद्गर, गदा, पहाड़ोंके शिखर और सागौन तथा वटके वृक्ष उसने हनुमान्पर छोड़े ॥३२।। सो इनसे तथा नाना प्रकारके अन्य शस्त्रोंके समहसे हनुमान् उस तरह विचलित नहीं हुआ जिस प्रकार कि महामेघोंके समूहसे पर्वत विचलित नहीं होता है ॥३३॥ राजा महेन्द्रकी दिव्यमायासे उत्पन्न शस्त्रोंकी उस वर्षाको पवन-पुत्र हनुमान्ने अपनी उल्का-विद्याके प्रभावसे चूर-चूर कर डाला ||३४|| और उसी समय वेगसे भरे, दिग्गजोंके शुण्डादण्डके समान विशाल हाथोंसे युक्त तथा उत्तम बलको धारण करनेवाले हनुमान्ने मातामह महेन्द्रके रथपर उछलकर उसे रोकनेपर भी पकड़ लिया। शूरवीरोंने उसे साधुवाद दिया और वह पकड़े हुआ मातामहको लेकर अपने रथपर आरूढ़ हो गया ॥३५-३६।। वहाँ जिसकी विक्रियाकृत लांगल और हाथोंसे उल्काएँ निकल रही थीं तथा जो परम अभ्युदयको धारण करनेवाला था ऐसे दौहित्र-हनुमान्की वह महेन्द्र सौम्य वाणी द्वारा स्तुति करने लगा ॥३७॥ कि अहो वत्स ! तेरा यह उत्तम माहात्म्य यद्यपि मैंने पहलेसे से सुन रखा था पर आज प्रत्यक्ष ही देख लिया ॥३८|| विजयाधं पर्वतके ऊपर महाविद्याओं तथा शस्त्रोंसे आकूल इन्द्र विद्याधरके युद्धमें भी जो किसीके द्वारा पराजित नहीं हुआ था तथा जो
१. वायुवशंगतमेघयोरिव । २. -मुद्धृतबलान्वितौ म. । ३. शिखरिणि च म. । ४. साधुः स्वनः म. ।
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