Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 321
________________ एकोनपश्चाशत्तमं पर्व श्रीवत्सकान्तिसंपूर्णमहाशोभस्तनान्तरम् । गम्भीरनामिवरक्षाममध्यदेशविराजितम् ॥५७॥ प्रशान्तगुणसंपूर्ण नानालक्षणभूषितम् । सुकुमारकरं वृत्तपीवरोरुद्वयस्तुतम् ॥५॥ कूर्मपृष्ठमहातेजःसुकुमारक्रमद्वयम् । चन्द्राकुरारुणच्छायानखपतिसमुज्ज्वलम् ॥५९॥ अक्षोभ्यसत्त्वगम्भीरं वज्रसंघातविग्रहम् । सर्वसुन्दरसन्दोहमिव कृत्वा विनिर्मितम् ॥६०॥ महाप्रभावसंपनं न्यग्रोधपरिमण्डलम् । प्रियाङ्गनावियोगेन बालसिंहमिवाकुलम् ॥६॥ शच्येव रहितं शक्रं रोहिण्येव विना विधुम् । रूपसौभाग्यसंपन्नं सर्वशास्त्रविशारदम् ॥६२॥ शौर्यमाहात्म्यसंयुक्तं मेधादिगुणसंयुतम् । एवंविधं समालोक्य मारुतिः क्षोममागतः ॥१३॥ अचिन्तयञ्च संभ्रान्तस्तत्प्रमाववशीकृतः । तच्छरीरप्रमाजालसमालिङ्गितविग्रहः ॥६॥ श्रीमानयमसौ राजा रामो दशरथात्मजः । यस्येह लक्ष्मणो भ्राता लोकश्रेष्ठः स्थितो वशे ॥६५॥ यस्यालोक्य तदा संख्ये छत्रं शीतांशुसंनिमम् । सा साहसगतेर्माया वैताली परिनिःसृता ॥६६॥ दृष्टा वज्रधरं पूर्व हृदयं यन्न कम्भितम् । तदद्य मम दृष्ट्रनं संक्षोभं परमं गतम् ॥६॥ इति विस्मयमापन्नः समनुसृत्य तान् गुणान् । ससार पावनिः पनं श्रीमदम्मोजलोचनम् ॥६॥ दूरादुत्थाय दृष्ट्वं पद्मलक्ष्मीधरादिमिः । असौ प्रहृष्टचेतोमिः परिष्वक्तो यथाक्रमम् ॥६९।। परस्परं समालोक्य संभाष्य विनयोचितम् । उपधानविचित्रेषु स्वासनेप्ववतस्थिरे ॥७॥ लाल था जिसकी दांतोंकी पंक्ति कुन्द कुसुमके समान शुक्ल थी, कण्ठ शंखके समान था, जो सिंहके समान विस्तृत वक्षःस्थलके धारक थे, महाभुजाओंसे युक्त थे ॥५६॥ जिनके स्तनोंका मध्यभाग श्रीवत्स चिह्नको कान्तिसे परिपूर्ण महाशोभाको धारण करनेवाला था, जो गम्भीर नाभिसे युक्त तथा पतली कमरसे सुशोभित थे ॥५७।। जो प्रशान्त गुणोंसे युक्त थे, नाना लक्षणोंसे विभूषित थे, जिनके हाथ अत्यन्त सुकुमार थे, जिनकी दोनों जाँघे गोल तथा स्थूल थीं ॥५८॥ जिनके दोनों चरण कछुवेके पृष्ठभागके समान महातेजस्वी तथा सुकुमार थे, जो चन्द्रमाको किरणरूपी अंकुरोंसे लाल-लाल दीखनेवाली नखावलीसे उज्ज्वल थे ॥५९॥ जो अक्षोभ्य धैर्यसे गम्भीर थे, जिनका शरीर मानो वज्रका समह ही था. अथवा समस्त सन्दर वस्तओंको एकत्रित कर ही मानो जिनकी रचना हुई थी ॥६०॥ जो महाप्रभावसे युक्त थे, न्यग्रोध अर्थात् वट-वृक्षके समान जिनका मण्डल था, जो प्रिय स्त्रीके विरहके कारण बालसिंहके समान व्याकुल थे ॥६१॥ जो इन्द्राणीसे रहित इन्द्रके समान, अथवा रोहिणीसे रहित चन्द्रमाके समान जान पड़ते थे, जो रूप तथा सौभाग्य दोनोंसे युक्त थे, समस्त शास्त्रोंमें निपुण थे ॥६२।। शूर-वीरताके माहात्म्यसे युक्त थे तथा मेधा-सबुद्धि आदि गुणोंसे युक्त थे। ऐसे श्रीरामको देखकर हनुमान क्षोभको प्राप्त हुआ ॥६३।। तदनन्तर जो रामके प्रभावसे वशीभूत हो गया था और उनके शरीरको कान्तिके समूहसे जिसका शरीर आलिंगित हो रहा था ऐसा हनुमान् सम्भ्रममें पड़ विचार करने लगा ॥६४॥ कि यह वही दशरथके पुत्र लक्ष्मीमान् राजा रामचन्द्र हैं, लोकश्रेष्ठ लक्ष्मण जैसा भाई जिनका आज्ञाकारी है ॥६५॥ उस समय युद्ध में जिनका चन्द्रतुल्य छत्र देखकर साहसगति को वह वैताली विद्या निकल गयो ॥६६।। मेरा जो हृदय पहले इन्द्रको देखकर भी कम्पित नहीं हुआ वह आज इन्हें देखकर परम क्षोभको प्राप्त हुआ है ॥६७।। इस प्रकार आश्चर्यको प्राप्त हुआ हनुमान् इनके गुणोंका अनुसरण कर कमललोचन रामके पास पहुँचा ॥६८।। जिनका चित्त हर्षित हो रहा था ऐसे राम, लक्ष्मण आदिने इसे देख दूरसे ही उठाकर यथाक्रमसे इसका आलिंगन किया ॥६९॥ परस्पर एक दूसरेको देखकर तथा विनयके योग्य वार्तालाप कर सब नाना प्रकार तालियोंसे १. युद्धे । २. सवं म. । ३. पवनस्यापत्यं पुमान् पावनिः हनुमान् । ४. स्वासन्नेष्ववतस्थिते म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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