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पद्मपुराणे
तच्छुत्वा समुपाख्यानं जितजाम्बूनदोदितम् । बहवो विस्मयापन्ना बभूवुः स्मितकारिणः ।।१८३।। जाम्बूनदादयः सर्वे ततः कृत्वा प्रधारणम् । इदमूचुः पुनः पद्मं शृणु राजन् समाहितः ॥१८॥ अनन्तवीर्ययोगीन्द्रं संप्रणम्य पुरा मुदा । रावणेनात्मनो मृत्यु परिपृष्टः समादिशत् ।।१८५।। यो निर्वाणशिलां पुण्यामतुलामर्चितां सुरैः । समुद्यतां स ते मृत्योः कारणत्वं गमिष्यति ॥१८६॥ सर्वज्ञोक्तं निशम्यैतदचिन्तयदसाविदम् । भविता पुरुषः कोऽसौ तां यश्चालयितुं क्षमः ॥१८७।। नास्त्येव मरणे हेतुर्ममेत्युक्तं भवत्यदः । वचोयुक्तिर्विचित्रा हि विदुषामर्थदेशने ।।१८८।। ततो लक्ष्मीधरोऽवोचद्गच्छामो न चिरं हितम् । ईक्षामहे शिलां सैद्धी भव्यानां रोमहर्षणीम् ॥१०॥ रहस्यमेतत्सन्मन्त्र्य सुनिश्चित्य समन्ततः । सर्वे ते गन्तुमुधुक्ताः प्रमादपरिवर्जिताः ॥१९०॥ जाम्बूनदो महाबुद्धिः किष्किन्धाधिपतिस्तथा । विराधितोऽर्कमाली च नलनीलो विचक्षणी ।।१९।। सपुरस्कारमारोप्य विमाने रामलक्ष्मणौ। संप्रयाता द्वतं व्योम्नि रात्री तमसि गहरे ॥१९२।। अवतेरः समीपे च यत्र सा सुमनोहरा । शिला परमगम्भीरा सुरासुरनमस्कृता ।।१९३।। उपसत्रुश्च ते सर्वे मस्तकन्यस्तपाणयः । आशारक्षानवस्थाप्य प्रयातान् सुसमाहितान् ।।१९४।। सुगन्धिभिर्महाम्भोजैः पूर्णेन्दुपरिमण्डलैः । अन्धैश्च कुसुमैश्चित्ररर्चिता तैरसौ शिला ॥१९५।। सितचन्दनदिग्धाङ्गा कुङ्कुमांशुकधारिणी । तालंकरणा भाति सा शचीव मनोरमा ।।१९६।।
इस प्रकार जाम्बूनदके कथनको खण्डित करनेवाला लक्ष्मणका उपाख्यान सुन बहुत लोग आश्चर्यको प्राप्त हो मन्दहास्य करने लगे ॥१८३॥ तत्पश्चात् जाम्बूनद आदि सभी विद्याधर परस्परमें विचारकर रामसे यह कहने लगे कि हे राजन् ! एकाग्र चित्त होकर सुनिए ॥१८४॥ पहले एक बार रावणने हर्षपूर्वक अनन्तवीर्यनामा योगीन्द्रको नमस्कार कर उनसे अपनी मृत्युका कारण पूछा था सो उन योगीन्द्रने कहा था कि जो देवोंके द्वारा पूजित, अनुपम, पुण्यमयी निर्वाण शिलाकोटिशिलाको उठावेगा वही तेरी मृत्युका कारण होगा ॥१८५-१८६॥ सर्वज्ञके यह वचन सुन रावणने विचार किया कि ऐसा कौन पुरुष होगा जो उसे चलानेके लिए समर्थ होगा ॥१८७।। भगवान्के कहनेका तात्पर्य यह है कि मेरे मरणका कोई भी कारण नहीं है सो ठीक ही है क्योंकि अर्थके प्रकट करने में विद्वानोंकी वचन योजना विचित्र होती है ॥१८८॥
तदनन्तर लक्ष्मणने कहा कि हम लोग अभी चलते हैं विलम्ब करना हितकारी नहीं है, अन्य जीवोंको आनन्द देनेवाली सिद्धशिलाके अभी दर्शन करेंगे ॥१८९॥ तत्पश्चात् सब लोग परस्परमें मन्त्रणा कर तथा सब ओरसे निश्चय कर प्रमाद छोड़ लक्ष्मणके साथ जानेके लिए उद्यत हुए ॥१९०।। महावुद्धिमान् जाम्बूनद, किष्किन्धाका स्वामी-सुग्रीव, विराधित, अर्कमाली, अतिशय विद्वान् नल और नील, सम्मानके साथ राम और लक्ष्मणको विमानपर बैठाकर रात्रिके सघन अन्धकारमें शीघ्र ही आकाशमार्गसे चले ॥१९१-१९२॥ और जहाँ वह अत्यन्त मनोहर परम गम्भीर एवं सुर-असुरोंके द्वारा नमस्कृत सिद्धशिला पासमें थी वहाँ उतरे ॥१९३।। तदनन्तर सावधान चित्त होकर आगे गये हुए दिशारक्षकोंको नियुक्त कर वे सब हाथ जोड़ मस्तकसे लगा उस सिद्धशिलाके समीप गये ॥१९४।। वहाँ जाकर उन्होंने अत्यन्त सुगन्धित तथा पूर्ण चन्द्रमाके बिम्बके समान सुशोभित बड़े-बड़े कमलों तथा नाना प्रकारके अन्य पुष्पोंसे उस शिलाकी पूजा की ॥१९५॥
जिसके ऊपर सफेद चन्दनका लेप लगाया गया था, जो केशर रूप वस्त्रको धारण कर रही थी, तथा जो नाना अलंकारोंसे अलंकृत थी ऐसी वह शिला उस समय इन्द्राणोके समान
१. दिक्पालान् ।
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