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एकोनपञ्चाशत्तम पर्व
ततो नमः समुत्पत्य जगामासौ' मरुज्जवः । अत्युत्तुङ्गगुहैः पूर्ण श्रीपुरं श्रीनिकेतनम् ।।१।। तत्र हेमद्रवन्यस्तलेप्यतेजःसमुज्ज्वलम् । कुन्दामवलभीशोभि रत्ननिर्मितशेखरम् ॥२॥ मुक्तादामसमाकीर्ण वातायनविराजितम् । उद्यानाकीर्णपर्यन्तं प्राविशन्मारुतेगृहम् ॥३॥ अपूर्वलोकसंघातं पश्यतस्तस्य साद्भुतम् । मनोगतागतं भूयो गतं कृच्छ्रेण धीरताम् ॥४॥ प्रविष्टे मारुतेर्गेहं तस्मिन् दूते ससंभ्रमे । अनङ्गकुसुमोत्पातं जगामेन्दुनखात्मजा ।।५।। सस्पन्दं दक्षिणं चक्षुरवधार्य व्यचिन्तयत् । प्राप्तव्यं विधियोगेन कर्म कतु न शक्यते ॥६।। क्षुद्रशक्तिसमासक्ता मानुषास्तावदासताम् । न सुरैरपि कर्माणि शक्यन्ते कर्तुमन्यथा ॥७॥ वेदितागमनस्तावद् दूतो नर्मदया सभाम् । प्रस्वेदकणसंपूर्णः प्रतीहार्या प्रवेशितः ॥८॥ जगादाथ यथावृत्तं निःशेषं प्रणताननः । दण्डकादिं समायाताः पद्मनामादयः पुरा ॥९॥ शम्बूकस्य वधं युद्धं विषमं खरदूषणम् । पञ्चतागमनं तस्य मानवैरुत्तमैः सह ।।१०।। ततो निशम्य तां वातां शोकविह्वलविग्रहा। अनङ्गकुसुम
मुकुलेक्षणा ॥११॥ चान्दनेन द्रवेणतां सिच्यमानां क्रियोज्झिताम् । विलोक्यान्तःपुराम्भोधिः परमं क्षोभमागतः ॥१२॥ वीणातन्त्रीसहस्राणां प्राप्तानां कोणताडनम् । क्रन्दन्तीनां समं रम्यो ध्वनिः स्त्रीणां समुद्गतः ॥१३॥
तदनन्तर-वायुके समान वेगका धारक श्रीभूति दूत, आकाशमें उड़कर अत्यन्त ऊंचे-ऊँचे महलोंसे परिपूर्ण, लक्ष्मीके घरस्वरूप श्रीपुर नगरमें पहुँचा ।।१।। वहाँ जाकर उसने श्रीशैलके उस भवनमें प्रवेश किया जो स्वर्णमय पानीके लेपसे उत्पन्न तेजसे अत्यन्त देदीप्यमान था, कुन्दके समान उज्ज्वल अट्टालिकाओंसे सुशोभित था, रत्नमयी शिखरोंसे जगमगा रहा था, मोतियोंकी मालाओंसे व्याप्त था, झरोखोंसे सुशोभित था, और जिसका समीपवर्ती प्रदेश बाग-बगीचोंसे व्याप्त था ॥२-३॥ वहां लोगोंको अपूर्व भीड़ तथा आश्चर्यकारी अत्यधिक यातायात देख श्रीभूतिका मन बड़ी कठिनाईसे धोरताको प्राप्त हुआ ॥४॥ जब आश्चर्यमें पड़े हुए श्रीभूति दूतने हनुमान्के घरमें प्रवेश किया तब चन्द्रनखाकी पुत्री अनंगकुसुमा उत्पातको प्राप्त हुई ॥५॥ दक्षिण नेत्रको फड़कते देख उसने विचार किया कि दैवयोगसे जो कार्य जैसा होना होता है उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता ॥६॥ हीन शक्तिके धारक मनुष्य तो दूर रहें देवोंके द्वारा भो कर्म अन्यथा नहीं किये जा सकते ॥७॥ तदनन्तर अनंगकुसुमाकी प्रहासिका सखीने जिसके आगमन की सूचना दी थी, और स्वेदके कणोंसे जिसका शरीर व्याप्त हो रहा था ऐसे उस श्रीभूति दूतको प्रतीहारीने सभाके भीतर प्रविष्ट कराया ॥८॥
अथानन्तर नम्र मुख होकर उसने सब वृत्तान्त ज्योंका त्यों इस प्रकार सुनाया कि राम आदि दण्डक वनमें आये, शम्बूकका वध हुआ, खरदूषणके साथ विषम युद्ध हुआ, और उत्तम मनुष्योंके साथ खरदूषण मारा गया ॥९-१०॥ तदनन्तर यह वार्ता सुन अनंगकुसुमा शोकसे विह्वल शरीर हो मूच्छित हो गयी तथा उसके नेत्र निमीलित हो गये ॥११॥ उसका हलन-चलन बन्द हो गया तथा चन्दनके द्रवसे उसे सींचा जाने लगा, यह देख समस्त अन्तःपुररूपी सागर परम क्षोभको प्राप्त हुआ ॥१२॥ अन्तःपुरकी समस्त स्त्रियां एक साथ रुदन करने लगीं सो उनके
१. श्रीभूतिः । Jain Education International
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