Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 316
________________ २९८ पद्मपुराणे योऽसौ विभीषणः ख्यातः स्वयं ब्रह्मा स कीर्तितः । क्रूरकर्मनिवृत्तारमा भावितोऽणुव्रतैर्दृढम् ।।२४०॥ अलङ्घ्यवचनं तस्य कुरुते खेचराधिपः । तयोहि परमा जोतिरन्तरायविवर्जिता ॥२४॥ बोधितस्तेन दाक्षिण्याद् यशःपालनतोऽपि वा । लज्जया वा विदेहस्य तनयां प्रेषयिष्यति ॥२४२॥ विज्ञापनवचोयुक्तिकुशलो नयपेशलः । अन्विष्यतामरं कश्चित्प्रसादी रावणस्य यः ॥२४३॥ ततो 'महोदधिर्नाम्ना ख्यातो विद्याधराधिपः । अब्रवीदेष वृत्तान्तो भवतां 'नागतः श्रुतिम् ।।२४४।। अन्त्रर्बहुजनक्षोदैलङ्काऽगम्या निरन्तरम् । कृतातिशयदुःप्रेक्षा सुभीमात्यन्तगह्वरा ॥२४५।। एषां मध्ये न पश्यामि महाविद्यं नमश्चरम् । लङ्कां गत्वा द्रुतं भूयो यः समर्थो निवर्तितुम् ॥२४६।। पवनंजयराजस्य श्रीशैलः प्रथितः सुतः । विद्यासत्त्वप्रतापाढ्यो बलोत्तुङ्गः स याच्यताम् ॥२४७॥ समं दशाननेनास्य विद्यतेऽजर्यमुत्तमम् । युक्तः करोत्यसो साम्यं निर्विघ्नं पुरुषोत्तमः ॥२४८॥ प्रतिप-जैस्ततः सर्वेरेवमस्त्विति सादरैः। मारुतेरन्तिकं दूतः श्रीभूतिः प्रहितो द्रुतम् ॥२४९।। शक्तिं दधतापिपरां प्राप्यापि परं प्रबोधमारभ्यः । भवितव्यं नयरतिना रविरिव काले स यात्युदयम्।।२५०॥ इत्या रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे कोटिशिलोत्क्षेपणाभिधानं नाम अष्टचत्वारिंशत्तम पर्व ॥४८॥ प्राणियोंके समहका विध्वंस न हो तथा समस्त उत्तम क्रियाएँ नष्ट न हों ॥२३९।। रा विभीषण अत्यन्त प्रसिद्ध है, मानो स्वयं ब्रह्मा ही है । वह दुष्टतापूर्ण कार्योंसे सदा दूर रहता है और अणुव्रतोंका दृढ़तासे पालन करता है ।।२४०॥ उसके वचन अलंघ्य हैं वह जो कहता है रावण वही करता है। यथार्थमें उन दोनोंमें निर्वाध परम प्रेम है ।।२४१॥ विभीषण उसे समझावेगा इसलिए, अथवा उदारतासे, अथवा कोर्ति रक्षा के अभिप्रायसे अथवा लज्जाके कारण रावण सीताको भेज देगा ॥२४२॥ इसलिए शीघ्र ही किसी ऐसे पुरुषको खोज की जाये जो निवेदन करनेवाले वचनोंकी योजनामें कुशल हो, नीतिनिपुण हो और रावणको प्रसन्न करनेवाला हो ॥२४३।। तदनन्तर महोदधि नामसे प्रसिद्ध विद्याधरोंके राजाने कहा कि क्या यह वृत्तान्त आप लोगोंके श्रवणमें नहीं आया ।।२४४१ कि लंका अनेक जनोंका विघात करनेवाले यन्त्रोंसे निरन्तर अगम्य कर दी गयी है, उसका देखना भी कठिन है तथा अत्यन्त भयंकर गम्भीर गतसेि युक्त हो गयी है ॥२४५।। इन सबके बीचमें महाविद्याओंके धारक एक भी ऐसे विद्याधरको नहीं देखता हूँ कि जो लंका जाकर शीघ्र ही पुनः लौटने के लिए समर्थ हो ॥२४६।। हाँ, पवनंजय राजाका पुत्र श्रीशैल विद्या, सत्त्व और प्रतापसे सहित है तथा अतिशय बलवान् है सो उससे याचना की जाये ॥२४७।। इसका दशाननके साथ उत्तम सम्बन्ध भी है इसलिए यदि इसे भेजा जाये तो यह श्रेष्ठ पुरुष निर्विघ्न रूपसे शान्ति स्थापित कर सकता है ।।२४८।। तदनन्तर सब विद्याधरोंने 'एवमस्तु' कहकर महोदधि विद्याधरका प्रस्ताव स्वीकृत कर श्रीशैल (हनुमान्) के पास शीघ्र ही श्रीभूति नामका दूत भेजा ॥२४९।। गौतम स्वामी कहते हैं कि परम शक्तिके धारक राजाको भी प्रारम्भ करने योग्य कार्यके विषयमें परम विवेकको प्राप्त कर नीतिज्ञ होना चाहिए क्योंकि ऐसा राजा ही सूर्यके समान समय आनेपर अभ्युदयको प्राप्त होता है ।।२५०।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराणमें कोटिशिला उठानेका वर्णन करनेवाला अड़तालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥४८॥ १. महोदधिनाम्ना म. । २. भवतां श्रुतिं न आगतः । ३. बालोत्तङ्गः म. । बलात्तुङ्ग ख.। ४. अजयं संगतं । विद्यते नयमुत्तमं ख., म.। ५. बोधमारभ्यः म.। ६. नरपतिना ख.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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