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पद्मपुराणे
तनया वनमालेति तयोरत्यन्तसुन्दरी । बाल्यात् प्रभृति सा रक्ता लक्ष्मणस्य गुणश्रुतेः ॥१५॥ श्रुत्वानरण्यपुत्रस्य प्रव्रज्यासमये वचः। रक्षितुं क्वापि निर्यातं राम लक्ष्मणसंयुतम् ॥१६॥ ध्यात्वेन्द्रनगरेशस्य बालमित्राय सूनवे । सुन्दरायातियोग्याय पितृभ्यां सा निरूपिता ॥१७॥ तं च विज्ञाय वृत्तान्तं हृदयस्थितलक्ष्मणा । विरहाभयमापन्ना चिन्तामेवमुपागता ॥१८॥ अंशुकेन वरं कण्ठं विवेष्टयासज्य पादपे । मृत्यं प्राप्तास्मि नान्येन पुरुषेण समागमम् ॥१९॥ विधिच्छलेन केनापि गवारण्यं दिनक्षये । ध्रवमधव यास्यामि मृत्यं विघ्नविवर्जितम् ॥२०॥ प्रयाहि भगवन् भानो संप्रेषय निशां द्रुतम् । कृताञ्जलिरियं दीना पादयोः प्रपतामि ते ॥२१॥ शर्वरी भण्यतां यात्वा काङ्क्षन्ती दुःखमागिनी । संवत्सरसमं वेत्ति दिन दायास्यतामिति ॥२२॥ इति संचित्य सा बाला गतेऽस्तं तिग्मतेजसि । सोपवासा समासाद्य पितृभ्यामनुमोदनम् ॥२३॥ प्रवरं रथमारुह्य सखीजनसमावृता । जगाम परया लम्या वनदेवी किलार्चितुम् ॥२४॥ यस्यां रात्रौ वनोद्देशे यत्र ते प्रथमं स्थिताः । तस्यामेव तमेवैषा गता दैवनियोगतः ॥२५॥ अरण्यदेवतापूजा तस्मिन् किल विनिर्मिता। सुप्तश्च सकलो लोको निराशङ्कः कृतक्रियः ॥२६॥ 'निश्शब्दपदनिक्षेपात्ततो वनमृगीव सा । निष्क्रम्य शिविरात् तस्मात् प्रतस्थे मयवर्जिता ॥२७॥ ततस्तस्याः समाघ्राय गन्धं परमसौरभम् । एवं सूनुः सुमित्राया दध्यौ संमदमुद्वहन् ।॥२८॥ ज्योतीरेखेव काप्येषा मूर्तिरत्रोपलक्ष्यते । कुमार्या श्रेष्ठया भाग्यमनया कुलजातया ॥२९॥
राजा पृथिवीधर नामसे प्रसिद्ध था उसकी रानीका नाम इन्द्राणी था जो कि स्त्रियोंके योग्य समस्त गुणोंसे सहित थी ॥१४।। उन दोनोंके वनमाला नामकी अत्यन्त सुन्दरी पुत्री थी, वनमाला बाल्य अवस्थासे ही लक्ष्मणके गुण श्रवण कर उनमें अनुरक्त थी ॥१५।। इसके माता-पिताने सुना कि राम अपने पिता दशरथके दीक्षा लेनेके समय कथित वचनोंका पालन करनेके लिए लक्ष्मणके साथ कहीं चले गये हैं तब उन्होंने इन्द्र नगरके राजाके बालमित्र नामक अत्यन्त योग्य सुन्दर पुत्रके लिए वनमाला देनेका निश्चय किया ॥१६-१७॥ जिसके हृदय में लक्ष्मण विद्यमान थे ऐसी वनमालाने जब यह समाचार सुना तो वह विरहसे भयभीत हो इस प्रकार चिन्ता करने लगी ||१८|| कि वस्त्रसे कण्ठ लपेट वृक्षपर लटककर भले ही मर जाऊँगी परन्तु अन्य पुरुषके साथ समागमको प्राप्त नहीं होऊँगी ।।१९।। मैं किसी कार्यके बहाने सार्यकालके समय वन में जाकर आज ही निर्विघ्न रूपसे मृत्यु प्राप्त करूंगी ।।२०।। हे भगवन् सूर्य ! आप जाओ और रात्रिको जल्दी भेजो। मैं अतिशय दीन हो हाथ जोड़कर आपके चरणोंमें पड़ती हूँ। जाकर रात्रिसे कहो कि तुम्हारी आकांक्षा करती हुई यह दुःखिनी दिनको वर्षके समान समझती है इसलिए जल्दी जाओ ॥२१-२२।। इस प्रकार विचारकर उपवास धारण करनेवाली वह बाला, सूर्यास्त होनेपर माता-पिताकी आज्ञा प्राप्त कर उत्तम रथपर सवार हो सखी जनोंके साथ वैभवपूर्वक वनदेवीकी पूजा करनेके लिए गयी ॥२३-२४॥
भाग्यकी बात कि जिस रात्रिमें तथा वनके जिस प्रदेशमें राम, सीता और लक्ष्मण पहलेसे जाकर ठहरे थे उसी रात्रिमें उसी स्थानपर वनमाला भी आ पहुंची ॥२५॥ वहाँ उसने वनदेवताकी पूजा की। तदनन्तर जब सब लोग अपना-अपना कार्य पूरा कर निःशंक हो सो गये तब जिसके पैर रखनेका भी शब्द नहीं हो रहा था ऐसी वनमाला वनकी मृगीकी नाईं उस शिविरसे निकल निभंय हो आगे चली ।।२६-२७।। तत्पश्चात् वनमालाके शरीरसे निकलनेवाली अत्यन्त मनोहर सुगन्धको सूंघकर हर्षित हो लक्ष्मण इस प्रकार विचार करने लगे ॥२८॥ कि 'यहां कोई ज्योतिकी रेखाके समान मूर्ति दिखाई पड़ती है, हो सकता है कि वह कोई उच्च १. रक्षितं क., ख.। २. निर्जातं ज.। ३. निःशब्दवननिक्षेपामतो म. ।
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