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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
तत्रासावुत्तमे तुङ्गे विमानशिखरे स्थितः । स्वैरं स्वैरं व्रजन् रेजे रावणो दिवि भानुवत् ॥१॥ सीतायाः शोकतप्ताया म्लानं वीक्ष्यास्यपङ्कजम् । रतिरागविमूढात्मा दध्यौ किमपि रावणः ॥२॥ अश्रुदुर्दिनवक्त्रायाः सीतायाः कृपणं परम् । नानाप्रियशतान्यूचे पृष्तः पार्वतोऽप्रतः ॥३॥ मारस्यात्यन्तमृदुमिहतोऽहं कुसुमेषुमिः । म्रिये यदि ततः साध्वि नरहस्या मवेत्तव ॥४॥ वक्त्रारविन्दमेतत्ते सकोपमपि सुन्दरि । राजते चारुभावानां सर्वथैव हि चारुता ॥५॥ प्रसीद देवि भृत्यास्ये सकृच्चक्षुर्विधीयताम् । स्वञ्चक्षुःकान्तितोयेन स्नातस्थापैतु मे श्रमः ॥६॥ यदि दृष्टिप्रसादं मे न करोषि वरानने । एतेन पादपद्मन सकृत् ताडय मस्तके ॥७॥ भवत्या रमणोद्याने किं न जातोऽस्म्यशोककः । सुलमा यस्य ते इलाध्या पादपद्धतलाहतिः ॥८॥ कृशोदरि गवाक्षेण विमानशिखरस्थिता । दिशः पश्य प्रयातोऽस्मि वियदृय रवेरपि ॥२॥ कुलपर्वतसंयुक्तां समेरुं सहसागराम् । पश्य क्षोणीमिमां देवि शिल्पिनेव विनिर्मितात् ॥१०॥ एवमुक्ता सती सीता पराचीनव्यवस्थिता । अन्तरे तृणमाधाय जगादारुचिताक्षरम् ॥११॥ अवसर्प ममाङ्गानि मा स्पृशः पुरुषाधम । निन्द्याक्षरामिमा वाणीमीदशी भाषसे कथम् ॥१२॥
अथानन्तर विमानके ऊंचे शिखरपर बैठा इच्छानुसार गमन करता हुआ रावण आकाशमें सूर्यके समान सुशोभित हो रहा था ॥१॥ रति सम्बन्धी रागसे जिसकी आत्मा विमूढ़ हो रही थी ऐसा रावण शोक-सन्तप्त सीताके मुरझाये हुए मुख-कमलका ध्यान कर रहा था-ठसा ओर देख रहा था ॥२॥ जिसके मुखसे निरन्तर अश्रुओंकी वर्षा हो रही थी ऐसी सीताके आगे-पीछे तथा बगल में खड़ा होकर रावण बड़ी दीनताके साथ नाना प्रकारके सैकड़ों प्रिय वचन बोलता था ॥३॥ वह कहता था कि मैं कामदेवके अतिशय कोमल पुष्पमयो बाणोंसे घायल होकर यदि मर जाऊँगा तो हे साध्वि ! तुझे नरहत्या लगेगी ॥४॥ हे सुन्दरि! तेरा यह मुखारविन्द क्रोध सहित होनेपर भी सुशोभित हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि जो सुन्दर हैं उनमें सभी प्रकारसे सुन्दरता रहती है ॥५॥
हे देवि ! प्रसन्न होओ और इस दासके मुखपर एक बार चक्षु डालो। तुम्हारे चक्षुकी कान्तिरूपी जलसे नहानेपर मेरा सब श्रम दूर हो जायेगा ॥६॥ हे सुमुखि! यदि दृष्टिका प्रसाद नहीं करती हो-आँख उठाकर मेरी ओर नहीं देखती हो तो इस चरण-कमलसे ही एक बार मेरे मस्तकपर आघात कर दो ॥७॥ मैं तुम्हारे मनोहर उद्यानमें अशोक वृक्ष क्यों नहीं हो गया ? क्योंकि वहाँ तुम्हारे इस चरण-कमलका प्रशंसनीय तल-प्रहार सुलभ रहता ॥८॥ हे कृशोदरि ! विमानको छतपर बैठकर झरोखेसे जरा दिशाओंको तो देखो मैं सूर्यसे भी कितने ऊपर आकाशमें चल रहा हूँ ॥९॥ हे देवि ! कुलाचलों, मेरु पर्वत और सागरसे सहित इस पृथिवीको देखो। यह ऐसी जान पड़ती है मानो किसी कारीगरके द्वारा ही बनायी गयी हो ॥१०॥ इस प्रकार कहनेपर पीठ देकर बैठी हुई सीता बीचमें तृण रखकर निम्नांकित अप्रिय वचन बोली ॥११॥
उसने कहा कि हे नीच पुरुष ! हट, मेरे अंग मत छू। तू इस प्रकारकी यह निन्दनीय वाणी १. अस्तु दुर्दिनबक्रायाः म.। २. संयुक्तं म.। ३. सहसागरम् म.। ४. विनिर्मितम् म.। ५. वण- म.। ६. अपसार्य म..
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