Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 306
________________ २८८ पद्मपुराणे पुनः पुनरपृच्छच्च वार्तामालिङ्गय तं नृपः । पनः पुनजंगादासी प्रमोदव्याकुलाक्षरः ॥१८॥ ततः समुत्सुकः पश्नः पर्यपृच्छदतिद्रुतम् । लङ्कापुरी क्रियदूरे विवेदयत खेचराः ।।९९।। इत्युकास्ते गता मोहं निश्चलीभूतविग्रहाः । अवाक्मुखा गतच्छाया बभूवुर्वागविवर्जिताः ॥१०॥ अभिप्रायं ततो ज्ञात्वा विशीर्णहृदयास्तके । अवज्ञामन्दया दृष्टया राघवेन विलोकिताः ।।१०१।। अथ भीतिपरित्रस्ताः ज्ञाताः स्म इति लजिताः । अचु/रं मनः कृत्वा करकुड्मलमस्तकाः ॥१०२॥ यदीयं देव नामापि कथंचिरसमुदीरितम् । ज्वरमानयति त्रासाद्वदामस्त्वत्पुरः कथम् ॥१०३॥ क वयं क्षुद्रसामाः क च लकामहेश्वरः । त्यजानुबन्धमेतस्मिन् ज्ञाते संप्रति वस्तुनि ॥१०४॥ अथावश्यमिदं वस्तु श्रोतव्यं श्रूयतां प्रभो । कोऽत्र दोषः समक्षं ते किंचिद्वक्तुं हि शक्यते ॥१०५॥ अस्त्यत्र लवणाम्भोधौ क्रूरग्राहसमाकुले । प्रख्यातो राक्षसद्वीपः प्रभूताद्भुतसंकुलः ॥१०६॥ शतानि सप्त विस्तीर्णो योजनानां समन्ततः । परिक्षेपेण तान्येव साधिकान्येकविंशतिः ॥१०॥ मध्ये मन्दरतुल्योऽस्य त्रिकूटो नाम पर्वतः । योजनानि 'नवोत्तुङ्गपञ्चाशद्विपुलत्वतः ॥१०८॥ हेमनानामणिस्फीतः शिलाजालावलीचितः । आसीत्तोयेदवाहस्य दत्तो नाथेन रक्षसाम् ॥१०९॥ श्चित्रः शिखरे कृतभूषणे। लरूति नगरी माति मणिरत्नमरीचिमिः ॥११॥ विमानसदृशैः रम्यैः प्रासादैः स्वर्गसंनिभैः । मनोहरैः प्रदेशश्च क्रीडनादिक्रियोचितैः ॥१११॥ त्रिंशद् योजनमानेन परिच्छिन्ना समन्ततः । महाप्राकारपरिखा द्वितीयेवं वसुन्धरा ॥११२।। तस्य राम, बार-बार आलिंगन कर उससे यह समाचार पूछते थे और वह हर्षसे स्खलित होते हुए अक्षरोंमें बार-बार उक्त समाचार सुनाता था ॥२८॥ तदनन्तर अत्यन्त उत्सुकतासे भरे रामने शीघ्र ही पूछा कि हे विद्याधरो! बतलाओ कि लंका कितनी दूर है ?॥९९।। इस प्रकार रामके कहनेपर सब विद्याधर मोहको प्राप्त हो गये। उनके शरीर निश्चल हो रहे तथा वे नम्रमुख, कान्तिहीन और वचनोंसे रहित हो गये ॥१००।। तदनन्तर जिनके हृदय भयसे विशीणं हो रहे थे ऐसे उन विद्याधरोंका अभिप्राय जानकर रामने उनकी ओर अवज्ञापूर्ण दृष्टिसे देखा ॥१०१।। तत्पश्चात् 'हम श्रीरामकी दृष्टिमें भयभीत जाने गये हैं। इस विचारसे जो लज्जित हो रहे थे ऐसे उन विद्याधरोंने हाथ जोड़ मस्तकसे लगा मनको धीर कर कहा कि ॥१०२॥ हे देव ! किसी तरह उच्चारण किया हुआ जिसका नाम ही भयसे ज्वर उत्पन्न कर देता है उसके विषयमें हम आपके सामने क्या कहें ? ॥१०३।। क्षुद्र शक्तिके धारक हम लोग कहां और लंकाका स्वामी रावण कहाँ ? अतः इस समय आप इस जानी हुई वस्तुकी हठ छोड़िए ॥१०४॥ अथवा हे प्रभो! यह सुनना आवश्यक ही है तो सनिए कहने में क्या दोष समक्ष तो कुछ कहा जा सकता है ॥१०५॥ दुष्ट मगरमच्छोंसे भरे हुए इस लवणसमुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानोंसे युक्त प्रसिद्ध राक्षसद्वीप है ॥१०६|| जो सब ओरसे सात योजन विस्तृत है तथा कुछ अधिक इक्कीस योजन उसकी परिधि है ॥१०७॥ उसके बीचमें सुमेरु पर्वतके समान त्रिकूट नामका पर्वत है जो नो योजन ऊंचा और पचास योजन चौड़ा है ॥१०८।। सुवर्ण तथा नाना प्रकारके मणियोंसे देदीप्यमान एवं शिलाओंके समूहसे व्याप्त है। राक्षसोंके इन्द्र भीमने मेघवाहनके लिए वह दिया था ॥१०९।। तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकारके चित्र-विचित्र वृक्षोंसे सुशोभित उस त्रिकूटाचलके शिखरपर लंका नामकी नगरी है जो मणि और रत्नोंकी किरणों तथा स्वर्गके विमानोंके समान मनोहर महलों एवं क्रीड़ा आदिके योग्य सुन्दर प्रदेशोंसे अत्यन्त शोभायमान है ॥११०-१११॥ जो सब ओरसे तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े प्राकार और ? आपके १. नवोत्तुङ्गपञ्च- म. । २. मेघवाहनस्य । ३. कल्पद्रुमैः ख. । ४. द्वितीयेन म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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