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सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व
किष्किन्धेशस्ततो भ्राम्यन् कान्ताविरहदुःखितः । तं प्रदेशमनुप्राप्तो निवृत्तं यत्र संयुगम् ॥१॥ तम्राद्राक्षीद्रथान् मग्नान् गजांश्च गतजीवितान् । सामन्तानश्वसंयुक्कान्निभिन्नच्छिन्नविग्रहान् ॥२॥ दह्यमानान् नृपान् कांश्चित् कांश्चिन्निश्वसितांस्तथा । क्रियमाणानुमरणान् कान्ताभिपरान् मटान् ॥३॥ विच्छिन्नार्धभुजान कांश्चित् कांश्चिद?रुवर्जितान् । निःसृतान्त्रचयान् कांश्चित्कांश्चिदलितमस्तकान् ॥४॥ गोमायुप्रावृतान् कांश्चित् खगैः काश्चिन्निषेवितान् । रुदता परिवर्गेण कांश्चिच्छादितविग्रहान् ॥५॥ किमेतदिति पृष्टश्च तस्मै कश्चिदवेदयत् । सीताया हरणं ध्वस्ती जटायुखरदूषणौ ॥६॥ ततोऽभवद् भृशं दुःखी खरदूषणमृत्युतः । किष्किन्धाधिपतिश्चिन्तामेतामगमदाकुलः ॥७॥ कष्टं चिन्तितमेतन्मे किलास्मै बलशालिने । निवेद्य दयिताशोकं मोक्ष्यामीति महाशया ॥८॥ विधानदन्तिना सोऽपि कथमाशामहाद्रुमः । भग्नो मम विपुण्यस्य कथं शान्तिर्मविष्यति ॥९॥ किमञ्जनासुतं गत्वा सादरं संश्रयाम्यहम् । मद्र पधारिणो येन मरणं स करिष्यति ॥१०॥ उद्योगेन विमुक्तानां जनानां सुखिता कुतः । तस्माद् दुःखविनाशाय श्रयाम्युद्योगमुत्तमम् ।।३१॥ अथवानेकशो दृष्टोऽनादरं स करिष्यति । नवोऽनुरागवन्द्यो हि चन्द्रो लोकस्य नान्यदा ॥१२॥ तस्मान् महाबलं दीप्तं महाविद्याविशारदम् । रावणं शरणं यामि स मे शान्ति करिष्यति ।।१३।।
अथानन्तर किष्किन्धापुरका स्वामी सुग्रीव स्त्रीके विरहसे दुःखी हो भ्रमण करता हुआ जहाँ कि खरदूषण तथा लक्ष्मणका युद्ध हुआ था ॥१॥ वहां आकर उसने देखा कि कहीं टूटे हुए रथ पड़े हैं, कहीं मरे हुए हाथी पड़े हैं, कहीं जिनके शरीर छिन्न-भिन्न हो गये हैं, ऐसे घोड़ोंके साथ सामन्त पड़े हैं ।।२।। कहीं कोई राजा जल रहे हैं, कोई साँसें भर रहे हैं, कहीं स्वामीके पीछे मरण करनेवाले स्वामिभक्त सुभट पड़े हैं ॥३॥ किन्हींकी आधी भुजा कट गयी है, किन्हींकी आधी जांघ टूट चुकी है, किन्हींकी आंतोंका समूह निकल आया है, किन्हींके मस्तक फट गये हैं, किन्हींको शृगाल घेरे हुए हैं, किन्हींको पक्षी खा रहे हैं और किन्हींके मृत शरीरको रोते हुए कुटुम्बीजन आच्छादित कर रहे हैं ॥४-५॥ 'यह क्या है ?' इस प्रकार पूछनेपर किसीने उसे बताया कि सीताका हरण हो चुका है और जटायु तथा खरदूषण मारे गये हैं ।।६।।
तदनन्तर खरदुषणकी मत्यसे किष्किन्धापति सुग्रीव बहत दुःखी हआ, वह आकूल होता हुआ इस प्रकार चिन्ता करने लगा कि हाय मैंने विचार किया था कि 'मैं उस बलशालीके लिए निवेदन कर स्त्री सम्बन्धी शोकसे छूट जाऊंगा' इसी बड़ी आशासे मैं यहां आया था पर मेरे भाग्यरूपी हाथीने उस आशारूपी महावृक्षको कैसे गिरा दिया। हाय अब मुझ पापीको किस प्रकार शान्ति होगी ॥७-९।। क्या अब मैं आदरके साथ हनुमान्का आश्रय लूं जिससे वह मेरे समान रूपका धारण करनेवाले मायामयी सुग्रीवका भरण कर सके ॥१०॥ उद्योगसे रहित मनुष्योंको सुख कैसे प्राप्त हो सकता है, इसलिए मैं दुःखका नाश करनेके लिए उत्तम उद्योगका आश्रय लेता हैं ॥११॥ अथवा हनुमानको अनेक बार देखा है अतः वह अनादर करेगा क्योंकि नवीन चन्द्रमा ही लोगोंके द्वारा अनुरागके साथ वन्दनीय होता है अन्य समय नहीं ॥१२॥ इसलिए महाबलवान्, देदीप्यमान और महाविद्याओंमें निपुण रावणकी शरणमें जाता हूँ वही मुझे शान्ति
१. दुःखत: म., क्रियमाणानुमरणाक्रान्ताभिरपरान् म.। २. रुदिता म.। ३. ऽनादरो म. ।
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