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पद्मपुराणे राजन् दारुणानङ्गलतापाशवशीकृतः । रूपं रूपवशः कोऽपि समं कृत्वास्य मायया ॥४१॥ अज्ञातो मन्त्रिवर्गस्थ सर्वस्यात्मजनस्य च । सग्रीवान्तःपुरं तुष्टः प्राविशल्पापचेतनः ॥४२॥ प्रविशन्तं च तं दष्टा सताराहा परा सती। महादेवी जगादास्य समद्विग्ना निजं जनम् ॥४३॥ दुष्टविद्याधरः कोऽपि सुग्रीवाकृतिरेषकः । आयाति पापपूर्णात्मा चारुलक्षणवर्जितः ॥४४॥ अभ्युत्थानादिकामस्य क्रियां माकाट पूर्ववत् । केनापि तरणोयोऽयमभ्युपायेन दुर्णयः ॥४५॥ अथाशङ्काविमुक्तात्मा गम्भीरो लीलयान्वितः । गत्वा सुग्रीववभेजे सौग्रीवं स वरासनम् ॥४६॥ एतस्मिन्नन्तरे प्राप बालिराजानुजः क्रमात् । अद्राक्षीच्च जनं दीनमप्राक्षीच्च समाकुलः ॥४७॥ कस्मादयं जनोऽस्माकं म्लानवक्वेक्षणो भृशम् । विषादं वहते स्थाने स्थाने कृतसमागमः ॥४८॥ किमङ्गदो गतो मेरुं वन्दनार्थी चिरायति । किं वा प्रमादतो देवी कस्याप्युपगता रुषम् ॥४९॥ जन्ममृत्युजरात्युग्रनानासंसारदुःखतः । बिभ्यद् विभीषणः किं स्यात्तपोवनमुपागतः ॥५०॥ चिन्तयन्नित्यतिक्रम्य द्वाराणि मणितेजसा । मासमानानि सर्वाणि संयुक्तानि सुतोरणः ॥५१॥ गीतजल्पितमुक्तानि सुप्तानीव समंततः । शङ्कितद्वारपालानि प्रयातान्यन्यतामिव ॥५२॥ प्रासादप्रवरोत्संगे विक्षिपन् दृष्टिमायताम् । अपश्यत्स्त्रीजनान्तस्थमात्माभं दुष्टखेचरम् ॥५३॥ दिव्यहाराम्बरं दृष्ट्वा तं शोमां दधतं पुरः । चित्रावतंसकं कान्त्या विकसद्वदनाम्बुजम् ॥५४॥
सुग्रीवका अन्तर बताया ॥४०॥ उसने कहा कि हे राजन् ! अतिशय दारुण कामरूपी लताके पाशसे विवश तथा सुताराके रूपसे मोहित कोई पापी विद्याधर मायासे इसका रूप बनाकर मन्त्रीवर्ग तथा समस्त परिजनोंके बिना जाने, सन्तुष्ट हो सुग्रीवके अन्तःपुरमें प्रविष्ट हुआ ॥४१-४२॥ उसे प्रवेश करते देख सुतारा नामकी परम सती महादेवीने भयभीत होकर अपने परिजनसे कहा कि जिसकी आत्मा पापसे पूर्ण है, तथा जो उत्तम लक्षणोंसे रहित है ऐसा यह कोई दुष्ट विद्याधर सुग्रीवका वेष रखकर आता है अतः पहले की तरह तुम लोग इसका सत्कार नहीं करो। यह दुर्नयरूपी सागर किसी उपायसे तिरने योग्य है-पार करने योग्य है ॥४३-४५॥ तदनन्तर जिसकी आत्मा शंकासे रहित थी, जो गम्भीर था और लीलासे सहित था ऐसा वह मायामय विद्याधर सुग्रीवके समान जाकर उसके सिंहासन पर आ बैठा ।।४६॥ इसी बीचमें बालिराजाका अनुज वास्तविक सुग्रीव, यथाक्रमसे वहां आया । आते ही उसने अपने परिजनको दीन देखकर व्यग्र हो उनसे पूछा कि ये हमारे परिजन, अत्यन्त म्लानमुख एवं म्लाननेत्र होकर विषाद क्यों धारण कर रहे हैं तथा स्थान-स्थानपर इकट्ठे हो रहे हैं ? ||४७-४८|| वन्दनाकी अभिलाषासे अंगद सुमेरु पर्वतपर गया था सो क्या आने में विलम्ब कर रहा है अथवा महादेवी प्रमादके कारण किसीपर रोषको प्राप्त हुई है ? ।।४९।। अथवा जन्म, मृत्यु और जरासे अत्यन्त उग्र संसारके नाना दु:खोंसे भयभीत होकर विभीषण तपोवनको प्राप्त हुआ है ।।५०।। इस प्रकार चिन्ता करता हुआ सुग्रीव, मणियोंके तेजसे देदीप्यमान तथा उत्तमोत्तम तोरणोंसे संयुक्त उन समस्त द्वारोंको उल्लंघन कर महलके भीतर प्रविष्ट हआ कि जो संगीतमय वार्तालापसे रहित थे. सब ओर से सन्तप्त हएके समान जान पड़ते थे, जिनके द्वारपाल शंकासे युक्त थे तथा जो अन्यरूपताको प्राप्त हुएके समान जान पड़ते थे ।।५१-५२।। जब उसने महलके उत्तम मध्यभागमें अपनी लम्बी दृष्टि डाली तो उसने स्त्री जनोंके पास बैठे हुए अपनी ही समान आभावाले एक दुष्ट विद्याधरको देखा ।।५३।। जो दिव्य हार और वस्त्रोंको धारण कर रहा था, परम शोभाका धारक था, चित्र-विचित्र आभूषणोंसे युक्त था, तथा कान्तिसे जिसका मुखकमल विकसित हो रहा था ऐसे दुष्ट विद्याधरको सामने
१. वरणीयोऽय- म. । २. सुग्रीव । ३. प्रमादते म.। ४. बिम्बद्विषण्णः
म. ।
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