________________
सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व
सुतो यस्याङ्गदाभिख्यः गुणरत्नविभूषितः । किष्किन्धाविषये यस्य संकथान्यविवर्जिता ॥२८॥ तयोरियं कथा यावद्वर्त्ततेऽनन्यचेतसोः । तावत्संप्राप सुग्रीवः श्रीमत्पार्थिवकेतनम् ||२९|| ज्ञातश्चानुमतिं प्राप्य विवेशेक्षितमङ्गलैम् । राजाधिकृतलोकेन परमं दर्शितादरः ||३०|| लक्ष्मीधरकुमाराद्यास्तं राजन् प्राप्तविस्मयाः । परिषस्वजिरे कान्त्या विकसद्वदनाम्बुजाः ॥३१॥ उपविष्टाश्च विधिना जाम्बूनदमहीतले । योग्यं संभाषणं चक्रुरमृतोपमया गिरा ॥३२॥ निवेदितं ततो वृद्धैरिति पद्ममहीक्षिते । देव किष्किन्धनगरे सुग्रीवाख्योऽवनीश्वरः ॥३३॥ प्रभुर्महाबलो मोगी गुणवानतिसस्प्रियः । केनापि दुष्टमायेन खगेनानर्थमाहृतः ॥ ३४ ॥ एतस्याकृतिमाश्रित्य राज्यभोगं पुरं बलम् । सुतारां च गृहीतुं तां कोऽपि वाञ्छति दुर्मतिः ||३५|| एतस्य वचनस्यान्ते रामस्तत्संमुखोऽभवत् । अचिन्तयच्च मत्तोऽपि दुःखितो नाम विद्यते ॥ ३६ ॥ मयायं सदृशो मन्ये यदि वाधरतां भजेत् । येनास्य दृश्यमानैकप्रतिपक्षेण बाधनम् ||३७|| अर्थोऽयं दुस्तरोऽत्यन्तं कथमेतद्भविष्यति । हानिरेवंविधस्यैषा मद्विधः किं करिष्यति ||३८|| सुमित्रातनयोऽपृच्छत् कृत्स्नं दुःखस्य कारणम् । सुग्रीवस्य मनस्तुल्यं धीरं जाम्बूनदश्रुतिम् ॥३९॥ ततोऽसौ मन्त्रिणां मुख्यो जगाद विनयान्वितः । असत्सुग्रीवरूपस्य सत्सुग्रीवस्य चान्तरम् ॥४०॥
नामक स्त्री में अत्यन्त आसक्त हो राज्यलक्ष्मी सहित निष्कण्टक राज्य में इस प्रकार क्रीड़ा करता था जिस प्रकार कि इन्द्राणी सहित इन्द्र क्रीड़ा करता है ॥२७॥ उस सुग्रीवका गुणरूपी रत्नोंसे विभूषित अंगद नामका ऐसा पुत्र है कि किष्किन्धा देशमें जिसकी कथा अन्य कथाओंसे रहित है अर्थात् अन्य लोगों की कथा छोड़कर सम्पूर्ण किष्किन्धा देशमें उसी एककी कथा होती है ॥२८॥ इस प्रकार अनन्यचित्तके धारक लक्ष्मण तथा विराधितके बीच जबतक यह वार्ता चल रही थी कि तबतक सुग्रीव राजभवनमें आ पहुँचा ||२९|| राजाके अधिकारी लोगोंने ज्ञात होनेपर उसके प्रति बहुत आदर दिखलाया । तदनन्तर अनुमति पाकर उसने मंगलाचारका अवलोकन करते हुए राजभवन में प्रवेश किया ||३०|| हे राजन् ! जिन्हें आश्चर्यं प्राप्त हो रहा था तथा जिनके मुखकमल कान्तिसे खिल रहे थे ऐसे लक्ष्मण आदिने उसका आलिंगन किया ||३१|| शिष्टाचारके उपरान्त सब विधिपूर्वक स्वर्णमय पृथिवी तलपर बैठे और अमृततुल्य वाणी से परस्पर वार्तालाप करने लगे ||३२|| तदनन्तर वृद्धजनोंने राजा रामचन्द्र के लिए परिचय दिया कि हे देव ! यह किष्किन्ध नगरका राजा सुग्रीव है ||३३|| यह महाऐश्वर्यशाली, महाबलवान्, भोगी, गुणवान् तथा सज्जनोंको अतिशय प्यारा है । परन्तु किसी दुष्ट मायावी विद्याधरने इसे अनर्थ- आपत्ति में डाल दिया है ||३४|| कोई दुर्बुद्धि विद्याधर इसका रूप धर इसके राज्यभोग, नगर, सेना तथा इसकी प्रिया सुताराको भी ग्रहण करना चाहता है ||३५|| तदनन्तर वृद्धजनोंके उक्त वचन पूर्ण होनेके बाद राम, सुग्रीवके सम्मुख उसकी ओर देखने लगे । रामने मनमें विचार किया कि अरे ! यह तो मुझसे भी अधिक दुःखी है || ३६ || यह मेरे समान है अथवा में समझता हूँ कि यह मुझसे भी कहीं अधिक हीनताको प्राप्त है क्योंकि इसका शत्रु तो इसके सामने ही बाधा पहुँचा रहा है ||३७|| इसका यह कार्य अत्यन्त कठिन है सो किस प्रकार होगा। इसकी यह बड़ी हानि हो रही है मेराजैसा व्यक्ति क्या करेगा ? ||३८|| लक्ष्मणने सुग्रीवके मनके समान जो जाम्बूनद नामक धीर-वीर मन्त्री था उससे दुःखका समस्त कारण पूछा ||३९||
तदनन्तर मन्त्रियों में मुख्य जाम्बूनदने बड़ी विनयसे मायामय सुग्रीव और वास्तविक १. संप्राप्तः म. । २. विवेशे कृतमङ्गलः म. । ३. महीक्षितो ख. । ४ माहतः म., ब. । ५ मदपेक्षयापि । ६. अधरतां = हीनतां । ७. लक्ष्मण म ।
Jain Education International
२७१
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org