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सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व
२७५ अविदित्वानयोर्मेंदमुमयोर्वानरेन्द्रयोः । कदाचिद् वधिषं माऽहं सुग्रीवं सुहृदां वरम् ॥८३।। मुहूर्त मन्त्रिभिः साधं विमृश्य च यथाविधि । उदासीनतया देव मारुतिः स्वपुरं गतः ॥८४॥ निवृत्ते मरुतः पुत्रे सुग्रीवोऽभवदाकुलः । असौ च सदृशोऽमुष्य तथैवातिष्टदाशया ॥८५।। मायासहस्रसंपन्नो महावीर्यो महोदयः । उल्कायुधोऽपि संदेहं प्राप कष्टमिदं परम् ॥८६॥ निमग्नं संशयाम्भोगी व्यसनग्राहसंकटे। न जानाम्यधुना देव क इस तारयिष्यति ॥८७।। कान्तावियोगदावेन प्रदीप्तं कपिकेतनम् । कृतज्ञं भज सुग्रीवं प्रसीद रघुनन्दन ॥८८॥ अयं शरणमायातो भवन्तं श्रितवत्सलम् । भवविधशरीरं हि परदुःखस्य नाशनम् ।।८९॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा विस्मयव्याप्तमानसाः । जाताः पनादयः सर्वे धिगहोहीतिभाषिणः ॥९०। अचिन्तयञ्च पद्मोऽतः सखायं मम दुःखतः । जातोऽपरः समानेषु प्रायः प्रेमोपजायते ॥९॥ एष प्रत्युपकारं मे यदि कतु न शक्ष्यति । निर्ग्रन्थश्रमणो भूत्वा साधयिष्यामि निर्वृतिम् ॥१२॥ एवं ध्यात्वानुराधाद्यैः समं संगन्त्र्य च क्षणम् । कपिमौलीन्द्रमाहूय पद्मनाभोऽभ्यभाषत् ॥१३॥ सत्सुग्रीवो सवान्यो वा सर्वथा त्वं मयेप्सितः । विजित्य भवतस्तुल्यं पदं यच्छामि ते निजम् ॥९॥ तथाविधं पुरा राज्यं प्राप्य योगं सुतारया । सेवस्व मुदितोऽत्यन्तभग्ननिःशेषकण्टकम् ॥९५।।
पड़ती है तबतक इन दोमें से एकको कैसे मारूँ ? ॥८२॥ इन दोनों वानर राजाओंका अन्तर जाने बिना मैं कदाचित मित्रोंमें श्रेष्ठ सग्रीवको ही न मार बैठ॥८३॥
इस प्रकार मुहूर्त भर मन्त्रियोंके साथ विधिपूर्वक विचार कर उदासीन भावसे हनुमान् अपने नगरको वापस चला गया ।।८४॥ हनुमान्के वापस लौट जानेपर सुग्रीव बहुत व्याकुल हुआ। और जो इसके समान दूसरा मायावी सुग्रीव था वह आशा लगाये हुए उसी प्रकार स्थित रहा आया ।।८५॥
यद्यपि सुग्रीव हजारों प्रकारकी मायासे स्वयं सम्पन्न है, महाशक्तिशाली है, महान् अभ्युदयका धारक है, और उल्कारूप अस्त्रोंका धारक है तो भी सन्देहको प्राप्त हो रहा है यह बड़े कष्टकी बात है ॥८६॥ हे देव ! व्यसनरूपी मगरमच्छोंसे भरे हुए संशयरूपी सागरमें निमग्न इस सुग्रीवको कौन तारेगा यह नहीं जान पड़ता ।।८७||
हे राघव ! स्त्रीवियोगरूपी दावानलसे प्रदीप्त तथा कृत उपकारको माननेवाले इस कपिध्वज सग्रीवकी सेवा स्वीकृत करो, प्रसन्न होओ॥८॥ यह आपको आश्रितवत्सल सुनकर
नकर आपकी शरण आया है, यथार्थमें आप-जैसे महापुरुषका शरीर परदुःखका नाश करनेवाला है ।।८९॥
तदनन्तर उसके वचन सुनकर जिनके हृदय आश्चर्यसे व्याप्त हो रहे थे ऐसे राम आदि सभी लोग 'धिक्' 'अहो"हो' आदि शब्दोंका उच्चारण करने लगे।९०॥ रामने विचार किया कि अब यह दुःखके कारण मेरा दूसरा मित्र हुआ है क्योंकि प्रायःकर समान मनुष्योंमें ही प्रेम होता है ॥९१।। यदि यह मेरा प्रत्युपकार करने में समर्थ नहीं होगा तो मैं निर्ग्रन्थ साधु होकर मोक्षका साधन करूंगा ॥१२॥
इस प्रकार ध्यान कर तथा विराधित आदिके साथ क्षण-भर मन्त्रणा कर सुग्रीवको बुला रामने उससे कहा ॥९३॥ कि तुम चाहे यथार्थ सुग्रीव होओ और चाहे कृत्रिम सुग्रीव मैं तुम्हें चाहता हूँ और तुम्हारे सदृश जो दूसरा सुग्रीव है उसे मारकर तुम्हारा अपना पद तुम्हें देता हूँ ॥९४॥ तुम पहलेकी भांति अपना राज्य प्राप्त कर समस्त शत्रुओंको निर्मूल करते हुए प्रसन्न हो सुताराके साथ ममागमको प्राप्त होओ ॥९५।। १. -द्विद्विषमहं म. । २. शृणु वत्सकम् म. । ३. पद्माभः ख., ज., क. । ४. -नुरोधाद्यः म.।
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