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अष्टचत्वारिंशत्तमं पर्थ
सेयमत्यन्तशीलाढ्या जिनधर्मपरायणा । कुटीरे दुर्विधस्यास्ते भ्रमता या त्वयेक्षिता ॥ ५४ ॥ व्रजता बन्धुदत्तेन यद्दत्तं रत्नकम्बलम् । अस्यास्तद्यक्षभवने तिष्ठत्यद्यापि रक्षितम् ॥५५॥ इत्युक्ते संयतं नत्वा स्तुत्वा च हितकारिणम् । इयाय खड्गवानेव संभ्रमी यक्षसंनिधिम् ॥५६॥ चेच तेsसिनानेन छिनद्मि नियतं शिरः । संव्यतो यदि मे जन्म न शास्ति स्फुटकारणम् ॥ ५७ ॥ यथावद् वेदितं तेन रत्नकम्बललक्षितम् । अयं जरायुलेपेन तिष्ठत्यद्यापि दिग्धकः ॥५८॥ प्रथमाभ्यां ततस्तस्य पितृभ्यां सह संगमः । जातो महोत्सवोपेतः महाविभवविस्मितः ॥ ५९ ॥ कथितं ते महाराज वृत्तान्तादिदमागतम् । अधुना प्रकृतं वक्ष्ये मवावहितमानसः ॥ ६०॥ लक्ष्मीधरं पुरस्कृत्य सुग्रीवस्त्वरितं ययौ । समीपं रामदेवस्य स तस्थौ विहितानतिः ॥ ६१॥ ततो विक्रमगर्वेण सदा प्रकटचेष्टितान् । आहूय किङ्करान् सर्वान् महाकुलसमुद्भवान् ॥ ६२ ॥ कांश्चिदश्रुतवृत्तान्तान् महामोग हतात्मिकान् । वेदयन् विस्मयप्राप्तान् पद्मनिर्मितमद्भुतम् ॥६३॥ कांश्चिद् विज्ञातवृत्तान्तान् प्रभुकार्यपरायणान् । जगौ प्रत्युपकाराय वाचा संमानयन्निदम् ॥६४॥ भो भो सुविभ्रमाः सर्वे शृणुत श्रीसमुत्सृताः । सीतामुपलमध्वं द्राक् क्व वर्तत इति स्फुटम् ॥ ६५॥ महीतले समस्तेऽस्मिन् पाताले खे जले स्थले । जम्बूद्वीपे पयोनाथे द्वीपे वा धातकीमति ॥ ६६ ॥ कुलपर्वतकुक्षेषु काननान्तेषु मेरुषु । नगरेषु विचित्रेषु रम्येषु व्योमचारिणाम् ॥ ६७ ॥ गहनेषु समस्तेषु नानाविद्यापराक्रमाः । जानीत दिक्षु सर्वासु सतीं भूविवरेषु च ॥ ६८ ॥
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रहने लगी ॥५३॥ वह अत्यन्त शीलवती तथा जिनधर्मके धारण करनेमें तत्पर रहती हुई दरिद्र देवाचककी कुटी में बेठी थी सो भ्रमण करते हुए तुमने उसे देखा || ५४ ॥ उसके पति बन्धुदत्त परदेशको जाते समय उसे जो रत्नकम्बल दिया था वह आज भी राजा यक्षके घरमें सुरक्षित रखा है ||५५ || इस प्रकार कहनेपर उसने हितकारी मुनिराजको नमस्कार कर उनकी बहुत स्तुति की । तदनन्तर वह तलवार लिये ही शीघ्रतासे राजा यक्षके पास गया || ५६|| और बोला कि यदि तू मेरे जन्मका सच-सच कारण स्पष्ट नहीं बताता है तो मैं इसी तलवारसे तेरा मस्तक काट डालूंगा ||५७|| इतना कहनेपर राजा यक्षने सब कारण ज्यों-का-त्यों बतला दिया और साथ ही वह रत्नकम्बल दिखलाते हुए कहा कि यह अब भी जरायुके लेपसे लिप्त है ||५८|| तदनन्तर उसका अपने पूर्व माता-पिता के साथ समागम हो गया और महावैभवसे आश्चर्यमें डालनेवाला बड़ा उत्सव हुआ ॥५९॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि है राजन् ! प्रकरण आ जाने से यह वृत्तान्त मैंने तुझसे कहा अब फिर प्रकृत बात कहता हूँ सो सावधान होकर श्रवण कर ||६०||
तदनन्तर सुग्रीव, लक्ष्मणको आगे कर शीघ्र ही रामके समीप आया और नमस्कार कर खड़ा हो गया ॥६१॥ तत्पश्चात् उसने पराक्रमके गर्वसे सदा स्पष्ट चेष्टाओंके करनेवाले एवं उच्च कुलों में उत्पन्न समस्त किंकरोंको बुलाकर जिन महाभोगी किंकरोंने यह वृत्तान्त नहीं सुना था उन्हें रामका अद्भुत कार्यं बतलाकर आश्चर्य से चकित किया ।। ६२-६३ ।। तथा जो इस वृत्तान्तको जानते थे प्रभुका कार्य करनेमें तत्पर रहनेवाले उन किंकरोंका वचन द्वारा सम्मान करते हुए उनसे रामका प्रत्युपकार करने के लिए यह कहा || ६४ ॥ कि हे उत्तम विभ्रमोंको धारण करनेवाले श्रीसम्पन्न समस्त पुरुषो ! तुम लोग शीघ्र ही सीताका पता चलाओ कि वह कहाँ है ? || ६५ ॥ तुम लोग नाना प्रकारकी विद्याओं और पराक्रमसे युक्त हो अतः इस समस्त भूतल में, पातालमें, आकाशमें, जलमें, थलमें, जम्बूद्वीपमें, समुद्रमें घातकीखण्ड द्वीपमें, कुलाचलोंके निकुंजोंमें, वनके
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१. 'सत्पयो यदि मे जन्म नास्ति त्वं स्फुटकारणम्' म. २. प्राकृते म. । ३. महामोहहतात्मिकान् म. । ४. श्रीमन्दुत्सवाः (?) म. ।
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