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पद्मपुराणे
सोऽवोचद्यां समुद्दिश्य प्रस्थितः कामुको भवान् । सा ते माता ततस्तां मा यासीः कामीति वारितः ॥ ४१ ॥ सोsवोचत् कथमित्याख्यं ततोऽस्मिन् प्रस्तुतं मुनिः । मानसानि मुनीनां हि सुदिग्धान्यनुकम्पया ॥४२॥ शृण्वस्ति मृत्तिकावत्यां कनको नाम वाणिजः ।
धूर्नाग्नि तस्य भार्यायां बन्धुदत्तः सुतोऽभवत् ||४३||
भार्या मित्रवती तस्य लतादत्तसमुद्भवा । कृत्वास्या गर्ममज्ञातं पोतेन प्रस्थितः पतिः || ४४ ॥ श्वसुराभ्यां ततो ज्ञात्वा गर्भ दुश्चरितेति सा । निराकृता पुरात् क्षिप्रं दास्योत्पलिकया सह ||४५|| प्रस्थिता च पितुर्गेहं सार्थेन महता समम् । सर्पेणोत्पलिका दृष्टा मृता च विपिनान्तरे ॥४६॥ ततः सख्या विमुक्तासौ शीलमात्र सहायिका । इमं क्रौञ्चपुरं प्राप्ता महाशोकसमाकुला ||४७॥ स्फीतदेवार्चकारामे प्रसूता यावदम्बरम् । आरात् क्षालयितुं याता शिशुस्तावटतः शुना ||४८|| सुतं स्वैरं समादाय रत्नकम्बलवेष्टितम् । ददौ यक्ष महीपाय नीत्वा स ह्यस्य वल्लभः ||४९|| ततोऽनेन विपुत्राया राजिकायाः समर्पितः । सार्थं च यक्षदत्ताख्यां प्रापितस्त्वं स वर्तसे ॥५०॥ प्रत्यावृत्य च संभ्रान्तमपश्यन्ती प्रसूतकम् । विप्रलापं चिरं चक्रे दुःखान् मित्रवती परम् ॥५१॥ देवार्चकेन सा दृष्टा कृपया कृतसान्त्वना । त्वं मे स्वसेति भाषित्वा स्वकेऽवस्थापितोटजे ॥५२॥ सहायरहितत्वेन त्रपयाकीर्तिभीतितः । न सा गता पितुर्गेहं तत्रैव निरता ततः ॥५३॥
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है ? ||४०|| इसके उत्तर में मुनिराजने कहा कि आप कामी होकर जिसके उद्देश्यसे जा रहे थे वह आपकी माता है इसलिए 'मत जाओ' यह कहकर मैंने रोका है || ४१॥ यक्षदत्तने फिर पूछा कि वह मेरी माता कैसे है ? इसके उत्तर में मुनिराजने प्रकृत वार्ता कही सो ठीक ही है क्योंकि मुनियोंके मन अनुकम्पासे युक्त होते ही हैं ||४२ || उन्होंने कहा कि सुनो, मृत्तिकावती नामक नगरीमें एक कनक नामका वणिक् रहता था, उसकी धुर् नामकी स्त्री में एक बन्धुदत्त नामका पुत्र हुआ था ||४३|| बन्धुदत्तकी स्त्रीका नाम मित्रवती था जो कि लतादत्तकी पुत्री थी। एक बार बन्धुदत्त अज्ञातरूपसे मित्रवतीको गर्भधारण कराकर जहाजसे अन्यत्र चला गया || ४४|| तदनन्तर सासश्वसुरने गर्भका ज्ञान होने पर उसे दुश्चरिता समझकर नगरसे निकाल दिया, सो गर्भवती मित्रवती, उत्पलिका नामक दासीको साथ ले एक बड़े बनजारोंके संघके साथ अपने पिता के घर की ओर चली । परन्तु जंगलके बीच उत्पलिकाको सांपने डँस लिया जिससे वह मर गयी ||४५-४६ || तब वह सखोसे रहित, एक शीलव्रत रूपी सहायिकासे युक्त हो महाशोकसे व्याकुल होती हुई इस क्रौंचपुर नगरीमें आयी ||४७|| यहाँ स्फीत नामक देवाचंकके उपवनमें उसने पुत्र उत्पन्न किया । तदनन्तर पुत्रको रत्नकम्बल में लपेट कर जब तक वह समीपवर्ती सरोवर में वस्त्र धोनेके लिए गयी तब तक एक कुत्ता उस पुत्रको उठा ले गया || ४८ || वह कुत्ता राजाका पालतू प्यारा कुत्ता था इसलिए उगने रत्नकम्बल में लिपटे हुए उस पुत्रको अच्छी तरह ले जाकर राजा यक्षके लिए दे दिया ||४९|| राजाने वह पुत्र अपनी पुत्र रहित राजिला नामकी रानीके लिए दे दिया तथा उसका यक्षदत्त यह सार्थक नाम रखा क्योंकि यक्ष कुत्ताका नाम है और वह पुत्र उसके द्वारा दिया गया था । वही यक्षदत्त तू है ॥५०॥ जब मित्रवती लौटकर आयो और उसने अपना पुत्र नहीं देखा तब वह दुःखसे चिरकाल तक बहुत विलाप करती रही || ५१|| तदनन्तर उपवनके स्वामी देवाचंकने उसे देखकर दया पूर्वक सान्त्वना दी और यह कह कर कि 'तू हमारी बहन है' अपनी कुटीमें रक्खी ||५२|| सहायक न होनेसे, लज्जासे अथवा अपकीर्तिके भयसे वह फिर पिताके घर नहीं गयी और वहीं
१. रण्ये म. ।
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