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पद्मपुराणे एते किं लोचने तस्या नैते पुष्पे 'सषट्पदे । करोऽयं किं चलस्तस्या नायं प्रत्यग्रपल्लवः ॥१३॥ केशमारं मयूरीषु तस्याः पश्यामि सुन्दरम् । अपर्याप्तशशाङ्केच लक्ष्मीमलिकसंभवाम् ॥१४॥ त्रिवर्णाम्भोजखण्डेषु श्रियं लोचनगोचराम् । शोणपल्लवमध्यस्थसितपुष्पे स्मितस्विषम् ॥१५॥ स्तबकेषु सुजातेषु कान्तिमस्सु स्तनश्रियम् । जिनस्नपनवेदीनां शोभां मध्येषु मध्यमाम् ॥१६॥ तासामेवोयमागेषु नितम्बभरताकृतिम् । ऊरुशोभां सुजातासु कदलीस्तम्मिकासुताम् ।।१७।। पद्मेष चरणामिख्यां स्थलसंप्राप्तजन्मसु । शोमां तु समुदायस्य तस्याः पश्यामि न कचित् ॥१८॥ चिरायति कथं सोऽपि सुग्रीवः कारणं नु किम् । दृष्टा नाम भवेत् सीता किं तेन शुमदर्शिना ॥१९॥ मद्वियोगेन तप्तां वा विलीनां तां सुशीलकाम् । ज्ञात्वा निवेदनेऽशक्तः किमसी नैति दर्शनम् ॥२०॥ किं वा कृतार्थतां प्राप्तः प्राप्य राज्य पुनर्निजम् । स्वस्थीभूतो भवेद् दुःखं मम विस्मृत्य खेचरः ॥२१॥ एवं चिन्तयतस्तस्य वाष्पविप्लुतचक्षुषः । स्रस्तालसशरीरस्य विवेदावरजो मनः ॥२२॥ ततः ससंभ्रमस्वान्तःकोपारुणितलोचनः । ययौ सुग्रीवमुद्दिश्य नग्नासिविलसत्करः ॥२३॥ गच्छतस्तस्य वातेन जास्तम्माप्तजन्मना । दोलायितमभूत् सर्व महोस्पाताकुलं पुरम् ॥२४॥ वेगनिक्षिप्तनिःशेषराजाधिकृतमानचैः" । प्रविश्य तद्गृहं दृष्टा सुग्रीवमिदमभ्यधात् ॥२५॥ आः पाप दयितादुःखनिमग्ने परमेश्वरे । भार्यया सहितः सौख्यं कथं भजसि दुर्मते ॥२६॥
यह उसका वस्त्र है, चंचल पत्रोंका समूह नहीं है ? ॥१२॥ क्या ये उसके नेत्र हैं, भ्रमर सहित पुष्प नहीं हैं ? और क्या यह उसका चंचल हाथ है नुतन पल्लव नहीं है ? ॥१३॥ मैं उसका सुन्दर केशपाश मयूरियोंमें, ललाटकी शोभा अधचन्द्रमें, नेत्रोंकी शोभा तीन रंगके कमलोंमें, मन्द मुसकानकी शोभा लाल-लाल पल्लवोंके मध्यमें स्थित पुष्पमें, स्तनोंकी शोभा कान्तिसम्पन्न उत्तम गुच्छोंमें, मध्यभागकी शोभा जिनाभिषेककी वेदिकाओंके मध्यभागमें, नितम्बकी स्थूल आकृति उन्हीं वेदिकाओंके ऊर्ध्वंभागमें, ऊरुओंकी अनुपम शोभा केलेके सुन्दर स्तम्भोंमें, और चरणोंकी शोभा स्थलकमलों अर्थात् गुलाबके पुष्पोंमें देखता हूँ परन्तु इन सबके समुदाय स्वरूप सीताकी शोभा किसीमें नहीं देखता हूँ ॥१४-१८।।
वह सुग्रीव भी बिना कारण क्यों देर कर रहा है ? शुभ पदार्थों को देखनेवाले उसने क्या किसीसे सीताका समाचार पूछा होगा? ॥१९॥ अथवा वह शीलवती मेरे वियोगसे सन्तप्त होकर नष्ट हो गयी है ऐसा वह जानता है तो भी कहने में असमर्थ होता हुआ ही क्या दिखाई नहीं देता है ? ॥२०॥ अथवा वह विद्याधर अपना राज्य पाकर कृतकृत्यताको प्राप्त हो गया है तथा मेरा दुःख भूलकर अपने आनन्दमें निमग्न हो गया है ॥२१॥ इस प्रकार विचार करतेकरते जिनके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त हो गये थे तथा जिनका शरीर ढीला और आलस्ययुक्त हो गया था ऐसे रामके अभिप्रायको लक्ष्मण समझ गये ॥२२॥
तदनन्तर जिनका चित्त क्षोभसे युक्त था, नेत्र क्रोधसे लाल थे, और जिनका हाथ नंगी तलवारपर सुशोभित हो रहा था ऐसे लक्ष्मण सुग्रीवको लक्ष्य कर चले ॥२३॥ उस समय जाते हुए लक्षमणकी जंघाओंरूपी स्तम्भोंसे उत्पन्न वायुके द्वारा समस्त नगर ऐसा कम्पायमान हो गया मानो महान् उत्पातसे आकुल होकर ही कम्पायमान हो गया हो ॥२४॥ राजाके समस्त अधिकारी मनुष्योंको अपने वेगसे गिराकर वे सुग्रीवके घर में प्रविष्ट हो सुग्रीवसे इस प्रकार कहने लगे ॥२५।। अरे पापी ! जब कि परमेश्वर-राम स्त्रीके दुःखमें निमग्न हैं तब रे दुर्बुद्धे ! तू स्त्रीके साथ सुखका १. पुष्पेषु षट्पदाः म. । २. शशाङ्क व म. । ३. नतश्रियम् (?) म.। ४. 'अभिख्या नामशोभयोः' इत्यमरः । ५. संप्रापनजन्मसु (?) म.। ६. दृष्ट्वा म.। ७. प्राप्ता म.। ८. प्राप्ये म. । ९. अनुजो लक्ष्मणः । १०. ससंभ्रमः स्वान्तः म. । ११. -मानन: म. ।
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