________________
२८३
अष्टचत्वारिंशतमं पर्व अहं त्वां खेचरध्वाङक्ष मोगे दुर्लडितं खल । नयामि तत्र नाथेन यत्र नीतस्त्वदाकृतिः ॥२७॥ एवमुग्रान् विमुञ्चन्तं वर्णान् कोपकणानिव' । लक्ष्मीधरं प्रणामेन सुग्रीवः शममानयत् ॥२८॥ उवाच चेदमेकं मे क्षम्यतां देव विस्मृतम् । क्षुद्राणां हि भवत्येव मादृशां दुर्विचेष्टितम् ॥२९॥ तस्यार्घपागयो दाराः संभ्रान्ताः कम्पमूर्तयः । संप्रणामेन निःशेषं जहुर्लक्ष्मणसंभ्रमम् ॥३०॥ सजनाम्भोदवाक्कोयधारानिकरसंगतः । प्रयाति विलयं वापि जनारणिमवोऽनलः ॥३१॥ प्रणाममात्रसाध्यो हि महतां चेतसः शमः । महभिरपि नो दानैरुपशाम्यन्ति दुर्जनाः ॥३२॥ प्रतिज्ञा स्मारयंस्तस्य चक्रे लक्ष्मीधरः परम् । उपकारं यथा योगी यक्षदत्तस्य मातरम् ॥३३॥ पप्रच्छ मगधाधीशो गणेश्वरमिहान्तरे । यक्षदत्तस्य वृत्तान्तं नाथेच्छामि विवेदितुम् ॥३४।। ततो गणधरोऽवोचच्छृणु श्रेणिकभूपते । चकार यक्षदत्तस्य यथा मातुः स्मृति मुनिः ॥३५॥ अस्ति क्रौञ्चपुरं नाम नगरं तत्र पार्थिवः । यक्षसंज्ञः प्रिया तस्य राजिलेति प्रकीर्तिता ॥३६॥ तत्पुत्रो यक्षदत्ताख्यः स बाह्यां विहरन् सुखम् । अपश्यत् परमां नारी स्थितां दुर्विधपाटके ॥३७॥
स्मरेपुहतचित्तोऽसौ तामुद्दिश्य व्रजनिशि । मुनिनावधियुक्तेन मैवमित्यभ्यभाषत ॥३८॥ । ततस्तं विद्युदुद्योतद्योतितं वृक्षमूलाम् । ऐक्षतायननामानं मुनि सायकमाणिकः ॥३९॥
तमुपेत्य नतिं कृत्वा पप्रच्छ विनयान्वितः । भगवन् किं त्वया मेति निषिद्धं कौतुकं मम ॥४०॥
उपभोग क्यों कर रहा है ? ॥२६।। अरे दुष्ट ! नीच विद्याधर ! मैं तुझ भोगासक्तको वहाँ पहुँचाता हूँ जहाँ कि रामने तेरी आकृतिको धारण करनेवाले कृत्रिम सुग्रीवको पहुँचाया है ।।२७। इस प्रकार क्रोधाग्निके कणोंके समान उग्रवचन छोड़नेवाले लक्ष्मणको सुग्रीवने नमस्कार कर शान्त किया ॥२८॥ और कहा कि हे देव ! मेरी एक भूल क्षमा की जाय क्योंकि मेरे जैसे क्षुद्र मनुष्योंकी खोटी चेष्टा होती ही है ।।२९।। जिनके शरीर कांप रहे थे ऐसी सुग्रीवकी घबड़ायी हुई स्त्रियां हाथमें अर्घ ले-लेकर बाहर निकल आयीं और उन्होंने अच्छी तरह प्रणाम कर लक्ष्मणके समस्त क्रोधको नष्ट कर दिया ॥३०॥ सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्यरूपी अरणिसे उत्पन्न हुई क्रोधाग्नि, सज्जनरूपी मेघ सम्बन्धी वचनरूपी जलधाराओंके साथ मिलकर शीघ्र ही कहीं विलीन हो जाती है ॥३१॥ निश्चयसे महापुरुषोंके चित्तको शान्ति प्रणाममात्रसे सिद्ध हो जाती है जब कि दुर्जन बड़े-बड़े दानोंसे भी शान्त नहीं होते ॥३२॥ लक्ष्मणने प्रतिज्ञाका स्मरण कराते हए सुग्रीवका उस तरह परम उपकार किया जिस तरह कि योगो अर्थात् मुनिने यक्षदत्तकी माताका किया था ।।३३।।
इसी बीच में राजा श्रेणिकने गौतमस्वामीसे पूछा कि हे नाथ ! मैं यक्षदत्तका वृत्तान्त जानना चाहता हूँ ॥३४|| तदनन्तर गणधर भगवान्ने कहा कि हे श्रेणिक भूपाल! मुनिने जिस प्रकार यक्षदत्तकी माताको स्मरण कराया था वह कथा कहता हूँ सो सुनो ॥३५॥ एक क्रौंचपुर नामका नगर है उसमें यक्ष नामका राजा था और राजिला नामसे प्रसिद्ध उसकी स्त्री थी ॥३६॥ उन दोनोंके यक्षदत्त नामका पुत्र था। एक दिन उसने नगरके बाहर सुखपूर्वक भ्रमण करते समय दरिद्रोंकी बस्तीमें स्थित एक परमसुन्दरी स्त्री देखी ॥३७॥ देखते ही कामके बाणोंसे उसका हदय हरा गया सो वह रात्रिके समय उसके उद्देश्यसे जा रहा था कि अवधिज्ञानसे युक्त मुनिराजने 'मा अर्थात् नहीं' इस प्रकार उच्चारण किया ॥३८॥ तदनन्तर उसी समय बिजली चमकी सो उसके प्रकाशमें हाथमें तलवार धारण करनेवाले यक्षदत्तने एक वृक्षके नीचे बैठे हुए अयन नामक मुनिराजको देखा ॥३९।। उसने बड़ो विनयसे उनके पास जाकर तथा नमस्कार कर उनसे पूछा कि हे भगवन् ! आपने 'मा' शब्दका उच्चारण कर निषेध किसलिए किया। इसका मुझे बड़ा कौतुक
१. कणानि च म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org