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पद्मपुराणें
यदि मे निश्वयोपेतः प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् । सीतां तां गुणसंपूर्णां भद्रोपलभसे प्रियाम् ॥९६॥ कपिकेतुरुवाचेदं यदि तां तव न प्रियाम् । सप्ताहाऽभ्यन्तरे वेद्मि विशामि ज्वलनं तदा ॥९७॥ अमीभिरक्षरैः पद्मः परं प्रह्लादमाश्रितः । शशाङ्करश्मिसदृशैर्दधानः कुमुदोपमाम् ॥९८॥ प्रवाहेणामृतस्येव प्लावितो विकचाननः । रोमाञ्चनिर्भरं देहं बभार च समन्ततः ॥९९॥ अन्योन्यस्य वयं द्रोहरहिताविति चादरात् । 'समयं चक्रतुजैनं तस्मिन्नेव जिनालये || १०० ॥ ततो रथवरारूढ महासामन्त सेवितौ । किष्किन्धनगरं तेन प्रयातौ रामलक्ष्मणौ ॥ १०१ ॥ समीपीभूय दूतश्च प्रहितः कपिमौलिना । निर्भत्सितश्च कूटेन सुग्रीवेणागतः पुनः ॥ १०२ ॥ ततश्चालीकसुग्रीवः संनह्य स्यन्दनस्थितः । युद्धाय निर्ययौ क्रुद्धः पृथुसैन्यसमावृतः ॥१०३॥ अथ कूटमटाटोप : संकटरचण्डनिस्वनः । संप्रहारो महानासीदप्रसंलग्न सेनयोः ॥ १०४॥ सुग्रीवमेव सुग्रीवो जगामोद्ग्रीवमुग्ररुट् । विद्यायाः करणासक्तो दृढं योद्धुं समुद्यतः ॥ १०५ ॥ संप्रहारो महान् जातस्तयोश्चक्रेघुसायकैः । अन्धकारीकृताकाशश्चिरमप्राप्तयोः श्रमम् ॥ १०६॥ अथ सुग्रीवमाहत्य गदस्यालीकवानरी । विज्ञाय मृत इत्येवं तुष्टः परमुपाविशत् ॥ १०७ ॥ निश्चेष्टविग्रहश्चायं सत्यशाखामृगध्वजः । निजं शिविरमानीतः परिवार्य सुहृज्जनैः ॥ १०८ ॥
यदि तुम मेरी प्राणाधिका
हे भद्र! मैंने जो निश्चय किया है उसे प्राप्त करनेके बाद तथा गुणों से परिपूर्णं सीताका पता चला सके तो उत्तम बात है ॥ ९६ ॥ | यह सुनकर सुग्रीवने कहा कि यदि मैं सात दिनके भीतर आपकी प्रियाका पता न चला दूं तो अग्निमें प्रवेश
करू ||९७||
चन्द्रमा की किरणोंके समान सुग्रीवके इन अक्षरोंसे राम कुमुदकी उपमा धारण करते हुए परम आह्लादको प्राप्त हुए ||१८|| अमृतके प्रवाहसे तर हुएके समान उनका मुख-कमल खिल उठा तथा शरीर सब ओरसे रोमांचोंसे व्याप्त हो गया ॥ ९९ ॥ हम दोनों परस्पर द्रोहसे रहित हैं - एक दूसरेके मित्र हैं इस प्रकार आदरके साथ उन दोनोंने उस जिनालय में जिनधर्मानुसार शपथ धारण की ॥ १०० ॥
तदनन्तर महासामन्तोंसे सेवित राम-लक्ष्मण सुग्रीवके साथ उत्तम रथपर आरूढ़ हो किष्किन्ध नगरकी ओर चले ॥ १०१ ॥ नगरके समीप पहुँचकर मुकुटमें वानरका चिह्न धारण करनेवाले सुग्रीवने दूत भेजा सो मायावी सुग्रीवके द्वारा तिरस्कृत होकर पुनः वापस आ गया ||१०२॥ तदनन्तर क्रोधसे भरा कृत्रिम सुग्रीव तैयार हो रथपर बैठकर बड़ी सेना आवृत हुआ युद्धके लिए निकला ॥१०३॥
अथानन्तर जिनके आगे सेना लग रही थी ऐसे उन दोनोंमें महायुद्ध प्रारम्भ हुआ । उनका वह महायुद्ध कपटी योद्धाओंके विस्तारसे युक्त था, संकटपूर्ण था तथा तीक्ष्ण शब्दोंसे सहित था || १०४ || जो तीक्ष्ण क्रोधका धारक था, तथा विद्याओंके करनेमें आसक्त था ऐसा सुग्रीव, अहंकार से ग्रीवाको ऊपर उठानेवाले कृत्रिम सुग्रीवसे दृढ़ युद्ध करनेके लिए उद्यत हुआ || १०५ || चिरकाल तक युद्ध करनेके बाद भी जिनमें थकावटका अंश भी नहीं था ऐसे उन दोनों सुग्रीवों में महान युद्ध हुआ। उनके उस युद्ध में चक्र, बाण तथा खड्ग आदि शस्त्रोंसे आकाशमें अन्धकार फैल रहा था ॥ १०६ ॥
अथानन्तर कृत्रिम सुग्रीव, गदाके द्वारा सुग्रीवको चोट पहुँचाकर तथा 'यह मर गया' ऐसा समझकर सन्तुष्ट होता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ || १०७ || इधर जिसका शरीर निश्चेष्ट पड़ा था
१. शपथं ।
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