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पद्मपुराणे
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तावत्ससायकं कृत्वा धनुरुद्धतविक्रमः । अधावत्पद्ममुद्दिश्य धनाधनचयोपमः ॥१२२॥ शरधारां क्षिपत्यस्मिन् भृशत्वाद्वहितान्तरम् । विधाय मण्डपं वाणैरस्थात् काकुस्थनन्दनः ॥ १२३॥ समं साहसयानेन पद्मस्याभूत्यरं मृधम् । आनन्दो हि स पद्मस्य चिरं यः कुरुते रणम् ॥ १२४ ॥ ततः कृत्वा रणक्रीडां चिरमूर्जितविक्रमः । क्षुरप्रेरस्य कवचं चिच्छेद रघुनन्दनः ॥ १२५ ॥ तितवाकारदेहोऽथ कृतस्तीक्ष्णैः शिलीमुखैः । गतः सुसाहसो भूमिमालिलिङ्ग गतप्रभः ॥ १२६ ॥ समासाद्य च तैः सर्वैः कुतूहलिभिरीक्षितः । दुष्टः साहसयानोऽसाविति ज्ञातश्च निश्चितम् ॥ १२७॥ ततः सभ्रातृकं पद्मं सुग्रीवः पर्यपूजयत् । स्तुतिभिश्चाभिरम्याभिस्तुष्टावोदात्तसंमदः ॥ १२८ ॥ पुरे कारयितुं शोभां परमां हतकण्टके । यातः कान्तासमायोगं समुत्कण्ठां वहन् पराम् ॥१२९॥ भोगसागरमग्नोऽसौ नैवाज्ञासीदहर्निशम् । 'चिरंदृष्टः सुतारायां न्यस्तनिःशेषचेतनः || १३० || रात्रिमेकां बहित्वा पद्मामप्रमुखा नृपाः । ऋधा प्रविश्य किष्किन्धं महाबलसमन्विताः ॥१३१॥ आनन्दोद्यानमाश्रित्य नन्दनश्रीविडम्बकम् । स्वेच्छयाव स्थितिं चक्रुर्लोकपालसुरश्रियः ॥१३२॥ तस्या' वर्णनमेवातिवर्णनारम्यतापि तु । उद्यानस्यान्यथा कोऽसौ शक्तस्तद्गुणवर्णने ॥१३३॥ रम्यं चैत्यगृहं तत्र न्यस्तचन्द्रप्रभार्चनम् । तद्विघ्नघ्नं प्रणम्यैतावासीनौ रामलक्ष्मणौ ॥ १३४॥
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प्रकार प्राप्त हुई जिस प्रकारकी पवनसे प्रेरित रूई प्राप्त होती है ॥ १२१ ॥ उस समय उद्धत पराक्रम तथा मेघसमूहकी उपमा धारण करनेवाला साहसगति, धनुषपर बाण चढ़ाकर रामकी ओर दौड़ा ॥१२२॥ उधर जब वह लगातार बाणसमूहकी वर्षा कर रहा था तब इधर राम भी बाणोंके द्वारा मण्डप बनाकर स्थित थे - राम भी घनघोर बाणोंकी वर्षा कर रहे थे || १२३ ॥ इस प्रकार रामका साहसगति के साथ परम युद्ध हुआ सो ठीक ही है क्योंकि जो चिरकाल तक युद्ध करता था वह रामको आनन्ददायी होता था ॥ १२४ ॥ तदनन्तर अत्यधिक पराक्रमके धारक रामचन्द्रने चिरकाल तक रणक्रीड़ा कर बाणोंसे उसका कवच छेद दिया ॥ १२५ ॥ तत्पश्चात् तीक्ष्ण बाणोंसे जिसका शरीर चलनी के समान सछिद्र हो गया था ऐसे साहसगतिने प्रभारहित हो पृथिवीका आलिंगन किया अर्थात् प्राणरहित हों पृथिवीपर गिर पड़ा ॥ १२६ ॥ कुतूहलसे भरे सब विद्याधरोंने आकर उसे देखा तथा निश्चयसे जाना कि यह साहसगति ही है ॥ १२७ ॥
तदनन्तर उत्कट हर्षके धारक सुग्रीवने भाई - लक्ष्मण सहित रामको पूजा की तथा मनोहर स्तुतियोंसे स्तुति की ॥ १२८ ॥ शत्रुरहित नगर में परमशोभा करानेके लिए परम उत्कण्ठाको धारण करता हुआ वह स्त्री के साथ समागमको प्राप्त हुआ ॥ १२९ ॥
वह भोगरूपी सागर में ऐसा मग्न हुआ कि रात-दिनका भी उसे ज्ञान नहीं रहा । वह चिरकाल बाद दिखा था अतः सुताराके लिए ही उसने अपनी समस्त चेतना समर्पित कर दी ॥ १३० ॥ महाबलसे सहित राम आदि प्रमुख राजाओंने एक रात्रि नगरसे बाहर बिताकर वैभव के साथ किष्किन्ध नगरमें प्रवेश किया ॥ १३१ ॥ | वहाँ लोकपाल देवोंके समान शोभाको धारण करनेवाले राम आदि प्रमुख राजा, नन्दनवनको शोभाको विडम्बित करनेवाले आनन्द नामक उद्यान में स्वेच्छासे ठहरे ॥१३२॥
उस उद्यानको सुन्दरताका वर्णन नहीं करना ही उसकी सबसे बड़ी सुन्दरता थी अन्यथा उसके गुण वर्णन करनेमें कौन समर्थ है ? || १३३ | | उस उद्यानमें चन्द्रप्रभ भगवान्की प्रतिमासे सुशोभित मनोहर चैत्यालय था सो समस्त विघ्नोंको नष्ट करनेवाले चन्द्रप्रभ भगवान्को नमस्कार कर राम-लक्ष्मण वहाँ रहने लगे ॥१३४॥
१. चिरं दृष्टः म. । २. स्य वर्णन म । ३. पितुः म ।
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