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सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व
क्रुद्धो जगर्ज सुग्रीवः प्रावृषेण्यघनोपमम् । दिङ्मुखेषु क्षिपन् मासमक्ष्णोः संध्याघनारुणम् ॥५५॥ ततः सुग्रीवतुल्योsपि कुर्वन् परुषगर्जितम् । उत्तस्थौ कोपरक्तास्यः करीव मदविह्वलः ॥ ५६ ॥ संदष्टष्टौ ' महासवौ दृष्ट्वा तौ योद्धुमुद्यतौ । साम्ना निरुरुधुः क्षिप्रं श्रीचन्द्राद्याः सुमन्त्रिणः ॥५७॥ सुतारेति ततोऽवोचत् दुष्टोऽयं कोऽपि खेचरः । तुल्यः सर्वेण देहेन बलेन वचसा रुचा ॥५८॥ पत्युर्मम न तुल्यस्तु लक्षणैर्मनको गपि । प्रासादशङ्ख कुम्माद्यैश्चिरसंस्थितलक्षितैः ॥५९॥ मर्तुभूषिताङ्गस्य महापुरुषलक्षणैः । कस्यापि वार्धैमस्यास्य वाजिवालेयतुल्यता ॥ ६०॥ श्रुत्वापीदं सुतारोक्तं सादृश्यहृतचित्तकैः । मन्त्रिभिस्तदवज्ञातं निःस्वोक्तं धनिमिर्यथा ।। ६१ ।। एकीभूय च तैः सर्वैर्मन्त्रिभिर्मतिशालिभिः । गदितं संप्रधार्येदं संदेहहृतमानसैः ||६२|| मद्यपस्यातिवृद्धस्य वेश्याव्यसनिनः शिशोः । प्रमदानां च वाक्यानि जातु कार्याणि नो बुधैः ॥ ६३॥ अत्यन्तदुर्लभा लोके गोत्रशुद्धिस्तया विना । नितान्तपरमेणापि न राज्येन प्रयोजनम् ||६४ || संप्राप्य निर्मलं गोत्रं मव्यं शीलादिभूषितैः । तस्मादन्तःपुरं यत्नादिदं रक्ष्यं सुनिर्मलम् ||६५ || अकीर्तिरिति निन्द्येयमस्य नोत्पद्यते यथा । कुरुध्वमतियत्नेन विभज्याखिलमेतयोः ||६६ || अङ्गः कृत्रिम सुग्रीवं पितृभ्रान्त्या समाश्रितः । अङ्गदः सत्यसुग्रीवं मातृवाक्यानुरोधतः ॥ ६७ ॥
देख सुग्रीव, क्रुद्ध होकर सन्ध्याके मेघ समान लाल नेत्रोंकी कान्तिको दिशाओंमें फैलाता हुआ वर्षा ऋतुके मेधके समान गरजा || ५४-५५ ॥ तदनन्तर सुग्रीवके समान रूपको धारण करनेवाला विद्याधर भी क्रोध से रक्तमुख हो हाथीके ससान मदसे विह्वल होता और कठोर गर्जना करता हुआ उठा ||५६||
अथानन्तर ओठोंको डँसते हुए उन दोनों बलवानों को युद्धके लिए उद्यत देख श्रीचन्द्र आदि मन्त्रियोंने शान्तिपूर्वक शीघ्र ही उन्हें रोक दिया || ५७|| तत्पश्चात् सुताराने कहा कि यह कोई दुष्ट विद्याधर है । यद्यपि समस्त शरीर, बल, वचन और कान्तिसे तुल्य दिखता है परन्तु प्रासाद, शंख, कलश आदि लक्षणोंसे जो कि मेरे पतिके शरीरमें चिरकालसे स्थित हैं तथा जिन्हें मैंने अनेक बार देखा है किंचित् भी मेरे पति के समान नहीं है ||५८ - ५९ ॥ महापुरुषोंके लक्षणोंसे जिनका शरीर भूषित है ऐसे मेरे पतिको तथा इस किसी नीचकी तुल्यता घोड़े और गधेकी तुल्यताके समान है ||६०||
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तदनन्तर दोनोंकी सदृशताके कारण जिनके चित्त हरे गये थे ऐसे मन्त्रियोंने सुताराके इन शब्दों क सुनकर भी उनकी उस तरह अवज्ञा कर दी जिस प्रकार कि धनी मनुष्य निर्धन मनुष्यके वचनों की अवज्ञा कर देते हैं || ६१ ॥ सन्देहने जिनका मन हर लिया था ऐसे उन बुद्धिशाली मन्त्रियोंने एकत्रित हो सलाह कर यह कहा कि मद्यपायी, अत्यन्त वृद्ध, वेश्या व्यसनी, बालक और स्त्रियोंके वचन विद्वज्जनोंको कभी नहीं मानना चाहिए ॥ ६२-६३ ।। लोकमें गोत्रकी शुद्धि अत्यन्त दुर्लभ है इसलिए उसके बिना बहुत भारी राज्यसे भी प्रयोजन नहीं है ||६४ || निर्मल गोत्र पाकर ही शीलादि आभूषणोंसे विभूषित हुआ जाता है इसलिए इस निर्मल अन्तःपुरकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए ||६५ ||
जिस तरह से सुग्रीव निन्दनीय अपकीर्ति न हो उस तरह इन दोनोंका सब विभाग कर अतियत्नपूर्वक काम करना चाहिए ||६६ || अंग नामका पुत्र पिताकी भ्रान्तिसे कृत्रिम - बनावटी सुग्रीव के पास गया और अंगद नामका पुत्र माताके वचनोंके अनुरोधसे सत्य सुग्रीवके
१. संदष्ठौ म । २. सास्ना म । ३. मनागपि ईषदपि - 'अव्यय सर्वनाम्नामकच् प्राक्टेः' इत्यकच् । ४. वाद्यमस्यास्य स । ५. वित्तकैः म । ६. व्यसनस्य शिशोः म । ७ विभिद्या- म. ।
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