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पपपुराणे अजानानो विशेष वा क्रोधचोदितमानसः । दशाननः कदाचिन्नौ हन्तुं वाल्छेदुभावपि ॥१४॥ मन्त्रदोषमसत्कारं दानं पुण्यं स्वशूरताम् । दुःशीलत्वं मनोदाहं दुर्मित्रेभ्यो न वेदयेत् ॥१५॥ तस्माद्येनैव संग्रामे निहितः खरदूषणः । तमेव शरणं यामि स मे शान्ति करिष्यति ॥१६॥ तुल्यव्यसनताहेतोः कालोऽयमुपैसर्पति । सद्भावं हि प्रपद्यन्ते तुल्यावस्था जना भुवि ॥१७॥ एवं विमृश्य संजातचारुबुद्धिः समन्ततः । प्रजिघायादराद् दूतं प्रियं कतु विराधितम् ॥१८॥ सुग्रीवागमने तेन ज्ञापितेऽभूद विराधितः । सविस्मयः सतोषश्च चकार च मनस्यदः ॥११॥ चित्रं सुग्रीवराजो मां संसेव्यः सन्निषेवते । अथवाश्रयसामर्थ्यात् पुंसा किं नोपजायते ॥२०॥ ततो दुन्दुभिनिर्घोषं समाकर्ण्य घनोपमम् । पातालनगरं जातं मयाकुलमहाजनम् ॥२१॥ ततो लक्ष्मीधरोऽपृच्छदनुराधाङ्गसंभवम् । वद तूर्य निनादोऽयं श्रूयते कस्य संहतः ।।२२।। सोऽवोचच्छ यतां देव महाबलसमन्वितः। नाथोऽयं कपिकेतूनां प्राप्तस्त्वां प्रेमतत्परः ॥२३॥ भ्रातरौ बालिसुग्रीवौ किष्किन्धानगराधिपौ । तिग्मांशुरजसः पुत्री प्रख्याताववनाविमौ ॥२॥ वालीति योऽत्र विख्यातः शीलशौर्यादिमिर्गणः । अमिमानमहार्शलो नानंसीद दशबक्रकम् ॥२५॥ परं प्राप्य प्रबोधं स कृत्वा सुग्रीवसाच्छ्रियम् । तपोवनमुपाविक्षत्सर्वग्रन्थविवर्जितम् ॥२६॥ सुग्रीवोऽप्यमिसक्तात्मा सुतारायां श्रियान्वितः । राज्ये निःकण्टके रेमे शचीयुक्तो यथा हरि ॥२७॥
प्रदान करेगा ॥१३॥ अथवा जिसका मन क्रोधसे प्रेरित हो रहा है ऐसा रावण, विशेषको न जानता हुआ कदाचित् हम दोनोंको ही मारनेकी इच्छा करे तो उलटा अनर्थ हो जायेगा ॥१४॥ इसके साथ नीति भी यह कहती है कि दुष्ट मित्रोंके लिए, मन्त्रदोष, असत्कार, दान, पुण्य, अपनी शूर-वीरता, दुष्ट स्वभाव और मनकी दाह नहीं बतलानी चाहिए ॥१५॥ इसलिए जिसने युद्ध में खरदूषणको मारा है उसीके शरणमें जाता हूँ, वही मेरे लिए शान्ति उत्पन्न करेगा ।।१६।। रामको भी स्त्रीका विरह हुआ है और मैं भी स्त्रीके विरहसे दुःखी हूँ इसलिए एक समान दुःख होनेसे यह समय उनके पास जानेके योग्य है क्योंकि पृथिवीपर समान अवस्थावाले मनुष्य सद्भाव-पारस्परिक प्रीतिको प्राप्त होते हैं ।।१७॥ ऐसा विचारकर जिसे सब ओरसे उत्तम बुद्धि प्राप्त हुई थी ऐसे सुग्रीवने विराधितको अनुकूल करनेके लिए उसके पास अपना दूत भेजा ॥१८॥ जब दूतने सुग्रीवके आगमनका समाचार कहा तब विराधित आश्चर्य और सन्तोषसे युक्त होकर मनमें यह विचार करने लगा कि आश्चर्य है सुग्रीव तो हमारे द्वारा सेवा करने योग्य है फिर भी वह हमारी सेवा कर रहा है सो ठीक ही है क्योंकि आश्रयकी सामयंसे मनुष्योंके क्या नहीं होता है ? ॥१९-२०॥
तदनन्तर मेघके समान दुन्दुभिका शब्द सुनकर पातालनगर, (अलंकारपुर ), भयसे व्याकुल हैं महाजन जिसमें ऐसा हो गया ।।२१।। तत्पश्चात् लक्ष्मणने विराधितसे पूछा कि कहो कि यह किसकी तुरहीका शब्द सुनाई दे रहा है ? ॥२२॥ इसके उत्तरमें विराधितने कहा कि हे देव ! यह महाबलसे सहित, वानरवंशियोंका स्वामी सुग्रीव प्रेमसे युक्त हो आपके पास आया है ।।२३।। बालि और सुग्रीव ये दोनों भाई किष्किन्धा नगरीके स्वामी हैं, राजा सहस्र रश्मि रजके पुत्र हैं तथा पृथिवीपर अत्यन्त प्रसिद्ध हैं ॥२४॥ इनमें जो बालि नामसे प्रसिद्ध था वह शील, शूर-वीरता आदि गुणोंसे विख्यात था तथा अभिमानके लिए मानो सुमेरु ही था, उसने रावणको नमस्कार नहीं किया था ॥२५॥ अन्तमें परम प्रबोधको प्राप्त हो तथा राज्यलक्ष्मी सुग्रीवके आधीन कर वह सर्वपरिग्रहसे रहित तपोवनमें प्रविष्ट हो गया ॥२६॥ सुग्रीव भी अपनी सुतारा १. बोधित-म.। २. आवाम् । ३. मुपसर्पणे ख., ज.। ४. तुल्यावाञ्छा म.। ५. प्रख्याती + अवनी - पृथिव्याम, इमौ । ६. इन्द्रः ।
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