________________
२६८
पद्मपुराणे अथवा रामशोकेन मरणं तस्य निश्चितम् । दीपप्रकाशयोयंवदनयोः संगतं परम् ॥२२॥ अपराधाब्धिमग्नः सन् यास्यति कविराधितः । सुग्रीवस्यापि वाश्वन्तं 'श्रयते लोकतः परम् ॥२२५॥ मायां सुग्रीवसंदेहकारिणी यश्च नाशयेत् । दशवक्त्रेश्वरादस्य कोऽसौ लोके भविष्यति ॥२२६॥ तस्मात्तदुर्गसंसिद्धौ स नाथं भजतेतराम् । योगश्चायं विमोर्टि परिणामे शुभावहः ॥२२७॥ प्रकारेणामुना शत्रनेतानन्यांश्च जेष्यति । दशाननस्ततो यत्नः क्रियतामत्र वस्तुनि ॥२२८॥ एवं विमृश्य विद्वांसः प्रमोदान्वितमानसाः। यथास्वं निलयं जम्मः कर्तव्यकृतनिश्चयाः ॥२२९॥ विभीषणेन यन्त्रायः शालो दुर्गतरीकृतः । विद्यामिश्च विचित्राभिर्लका गह्वरतारका ॥२३०॥
मन्दाक्रान्ता कृत्यं किंचिद्विशदमनसामाप्तवाक्यानपेक्षं नाप्तरुक्तं फलति पुरुषस्योज्झितं पौरुषेण । दैवापेतं पुरुषकरणं कारणं नेष्ठसंगे तस्माद्भव्याः कुरुत यतनं सर्वहेतुप्रसादे ॥२३॥ राजन्कर्मण्युदयसमयं सेवमाने जनानां नानाकारं कुशलवचनं नो विशत्येव चेतः । युक्तां तस्मास्थितिमनुनयन कर्म कुर्यात्प्रशस्तं भूयो येन प्रतपति रविः शोकरूपो न कष्टः ॥२३॥
इत्यार्षे रविषणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे मायाप्रकाराभिधानं नाम षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४६॥
प्राप्त हो जायेगा तब शोकसे दुःखी अकेला अथवा क्षुद्र सहायकोंसे युक्त लक्ष्मण क्या कर लेगा? ॥२२३।। अथवा रामके शोकसे उसका मरण होना निश्चित है क्योंकि इन दोनोंका समागम दीप और प्रकाशके समान अविनाभावी है ।।२२४॥ विराधित अपराधरूपी समुद्र में मग्न है अतः कहां जावेगा ? अथवा जावेगा भी तो सुग्रीवके समीप जावेगा ऐसा लोगोंसे सुना जाता है ॥२२५।। सुग्रीवका सन्देह उत्पन्न करनेवाली मायाको जो नष्ट कर सके ऐसा पुरुष संसारमें स्वामी दशाननसे बढ़कर दूसरा कौन होगा ? ॥२२६।। इसलिए उस कठिन कार्यको सिद्ध करनेके लिए सुग्रीव, स्वामी-दशाननकी सेवा करेगा। और सुग्रीवके साथ दशाननका समागम होना फलकाल
क होगा ॥२२७। इस विधिसे दशानन इन शत्रओंको तथा अन्य लोगोंको भी जीत सकेंगे इसलिए इस विषयमें शीघ्र ही यत्न किया जावे ॥२२८॥ इस प्रकार विचारकर बुद्धिमान् मन्त्री, करने योग्य कार्यका निश्चय कर हर्षित चित्त होते हुए अपने-अपने घर गये ।।२२९॥ विभीषणने यन्त्र आदिके द्वारा कोटको अत्यन्त दुर्गम कर दिया तथा नाना प्रकारकी विद्याओंके द्वारा लंकाको गह्वरों एवं पाशोंसे युक्त कर दिया ।।२३०॥
गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! निर्मलचित्तके धारक मनुष्योंका कोई भी कार्य आप्त वचनोंसे निरपेक्ष नहीं होता अर्थात् आप्तके कहे अनुसार ही उनका प्रत्येक कार्य होता है। आप्त भगवान्ने मनुष्योंके लिए जो कार्य बतलाये हैं वे पुरुषार्थके बिना सफल नहीं होते और पुरुषार्थ दैवके बिना इष्ट सिद्धिका कारण नहीं होता इसलिए हे भव्यजीवो! सो सबका कारण है उसके प्रसन्न करने में प्रयत्न करो ॥२३१।। हे राजन् ! जबतक मनुष्योंके कर्मका उदय विद्यमान रहता है तबतक नाना प्रकारके कुशल वचन उनके चित्तमें प्रवेश नहीं करते हैं इसलिए अपनी योग्य स्थितिके अनुसार प्रशस्त-पुण्यकर्म करना चाहिए जिससे कि फिर शोकरूपी कष्टदायी सूर्य सन्ताप उत्पन्न न कर सके ।।२३२।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरितमें रावणके मायाके
विविध रूपोंका वर्णन करनेवाला छियालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥४६।।
१.श्रयते ब. क. । २. दैवोपेतं । ३. यत्नं म.। ४. सेव्यमाने म.। ५. नानाकारे म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org