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पद्मपुराणे सनरकुमाररूपोऽपि यदि वाखण्डलोपमः । नरस्तथापि तं मर्तरन्यं नेच्छामि सर्वथा ।।८५॥ युष्मान्ब्रवीमि संक्षेपाहारान् सर्वानिहागतान् । यथा ब्रूत तथा नैतत्करोमि कुरुतेप्सितम् ॥८६॥ एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः स्वयमेव दशाननः । सीता मदनतापा” गङ्गावेणीमिव द्विपः ॥८७॥ समोपीभूय चोवाच परं करुणया गिरा। किंचिद्विहसितं कुर्वन्मुखचन्द्रं महादरः ॥८८॥ 'मा यासीदेवि संत्रासं भक्तोऽहं तव सुन्दरि । शृणु विज्ञाप्यमेकं मे प्रसीदावहिता भव ॥८९।। वस्तुना केन हीनोऽहं जगस्त्रितयवर्तिना । न मां वृणोषि यद्योग्यमात्मनः पतिमुत्तमम् ॥१०॥ इत्युक्त्वा स्प्रेष्टुकामं तं सीतावोचत्ससंभ्रमा। अपसर्प ममाङ्गानि मा स्पृशः पापमानसः ॥११॥ उवाच रावणो देवि त्यज कोपामिमानताम् । प्रसीद दिव्यभोगानां शचीव स्वामिनी भव ॥१२॥ सीतोवाच कुशीलस्य विभवाः केवलं मलम् । जनस्य साधुशीलस्य दारिद्रयमपि भूषणम् ॥१३॥ चारुवंशप्रसूतानां जनानां शीलहारतः । लोकद्वयविरोधेन शरणं मरणं वरम् ॥१४॥ परयोषित्कृताशस्य तवेदं जीवितं मुधा । शीलस्य पालनं कुर्वन् यो जीवति स जीवति ॥९५॥ एवं तिरस्कृतो मायां कतु प्रववृते दुतम् । नेशुर्देव्यः परित्रस्ताः संजातं सर्वमाकुलम् ॥१६॥ एतस्मिन्नन्तरे जाते भानुर्भायाभयादिव । समं किरणचक्रेण प्रविवेशास्तगह्वरम् ॥९७॥ प्रचण्डैर्विगलदगण्डैः करिभिर्घनवृंहितैः । भीषिताप्यगमल्लीता शरणं न दशाननम् ॥२८॥
को तुम लोग चाहे छेद डालो, भेद डालो अथवा नष्ट कर दो परन्तु अपने भर्ताके सिवाय अन्य पुरुषको मनमें भी नहीं ला सकती हूँ॥८४|| यद्यपि मनुष्य सनत्कुमारके समान रूपका धारक हो अथवा इन्द्रके तुल्य हो तो भी भर्ताके सिवाय अन्य पुरुषकी मैं किसी तरह इच्छा नहीं कर सकती ॥८५॥ मैं यहां आयी हुई तुम सब स्त्रियोंसे संक्षेपमें इतना ही कहती हूँ कि तुम लोग जो कह रही हो वह मैं नहीं करूंगी तुम जो चाहो सो करो ॥८६॥
इसी बीचमें जिस प्रकार हाथी गंगाकी धाराके पास पहुंचता है उसी प्रकार कामके सन्तापसे दुःखी रावण स्वयं सीताके पास पहुंचा ।।८७|| और पासमें स्थित हो मुखरूपी चन्द्रमाको कुछ-कुछ हास्यसे युक्त करता हुआ बड़े आदरके साथ अत्यन्त दयनीय वाणीमें बोला कि हे देवि ! भयको प्राप्त मत होओ, हे सुन्दरि! मैं तुम्हारा भक्त हूँ, मेरी एक प्रार्थना सुनो, प्रसन्न होओ और सावधान बनो ।।८८-८९|| बताओ कि मैं तीनों लोकोंमें वर्तमान किस वस्तुसे हीन हूँ जिससे तुम मुझे अपने योग्य उत्तम पति स्वीकृत नहीं करती हो ।।९०।। इतना कहकर रावणने स्पर्श करनेकी चेष्टा प्रकट की तब सीताने हड़बड़ाकर कहा कि पापी हृदय ! हट, मेरे अंगोंका स्पर्श मत कर ॥९॥ इसके उत्तरमें रावणने कहा कि हे देवि! क्रोध तथा अभिमान छोड़ो, प्रसन्न होओ और इन्द्राणीके समान दिव्य भोगोंकी स्वामिनी बनो ॥९२।। सीताने कहा कि कुशील मनुष्यकी सम्पदाएँ केवल मल हैं और सुशील मनुष्यकी दरिद्रता भी आभूषण है ।।९३।। उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए मनुष्योंको शीलकी हानि कर दोनों लोकोंके विरुद्ध कार्य करनेसे मरणकी शरणमें जाना ही अच्छा है ।।९४॥ तू परस्त्रीकी आशा रखता है अतः तेरा यह जीवन वृथा है। जो मनुष्य शोलकी रक्षा करता हुआ जीता है वास्तवमें वह जीता है ।।९५।।
इस प्रकार तिरस्कारको प्राप्त हुआ रावण शीघ्र ही माया करनेके लिए प्रवृत्त हुआ। सब देवियाँ भयभीत होकर भाग गयी और वहाँका सब कुछ आकुलतासे पूर्ण हो गया ।२६।। इसी बीच में सूर्य, किरणसमूहके साथ-साथ अस्ताचलकी गुहामें प्रविष्ट हो गया सो मानो रावणकी मायाके भयसे ही प्रविष्ट हो गया था ।।१७।। जो अत्यन्त क्रोध से युक्त थे, जिनके गण्डस्थलसे मद चू रहा था तथा जो अत्यधिक गर्जना कर रहे थे ऐसे हाथियोंसे डराये जानेपर भी सीता रावणकी शरणमें १. गङ्गाप्रवाहम् । २. मायाशीदेवि म. । ३. पृष्टकाम् म. । ४. अपसार्य म. । ५. शीलहारितः म. ।
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