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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
२६१ तत्छुत्वा रावणोऽवोचत् किं तदव्यं महीतले । भ्रातर्यस्यास्मि न स्वामी परकीयं कुतो मम ॥१२७॥ इत्युक्त्वा विकथाः कतु प्रारेभे भिन्नमानसः । लब्धान्तरश्च मारीचो महानीतिरवोचत ॥१२८॥ जानन्नपि कथं सर्व लोकवृत्तं दशानन । अकरोदीदृशं कर्म मोहस्येदं विचेष्टितम् ॥१२९।। सर्वथा प्रातरुत्थाय पुरुषेण सुचेतसा । कुशलाकुशलं स्वस्य चिन्तनीयं विवेकतः ॥१३॥ निरपेक्षं प्रवृत्तेऽस्मिन् वक्तुमेवं महामतौ । सभायाः क्षोमनं कुर्वन्नुत्तस्थौ रक्षसां प्रभुः ॥१३॥ त्रिजगन्मण्डनाभिख्यमारुरोह च वारणम् । महर्द्धिमिश्च सामन्तैर्वाहारूडैः समावृतः ।।१३२॥ पुष्पकाग्रं समारोप्य सीतां शोकसभाकुलाम् । पुरः कृत्वा महाभूत्या प्रययौ नगरीदिशा ॥१३३॥ कुन्तासितोऽमरच्छत्रध्वजाद्यर्पितपाणयः । अग्रतः पुरुषाः सस्रः कृतसंभ्रमनिस्वनाः ॥१३॥ चलिताश्चञ्चलग्रीवाः स्थूरीपृष्ठाः सहस्रशः । चञ्चत्खुराननक्षुण्णक्षितयश्चारुसादिनः ॥३५॥ प्रचण्डनिस्वनद्घण्टाः कृतजीमूतगर्जिताः । प्रचेलुर्वेत्तृभिर्नुना गण्डशैलसमा गजाः ॥१३६॥ अट्टहासान् विमुञ्चन्तः कृतनानाविचेष्टिताः । स्फोटयन्त इवाकाशं प्रजग्मुर्मानवाः पुरः ॥१३७।। सहस्रसंख्यतूर्याणां ध्वनिना पूरयन् दिशः । लङ्कां दशाननोऽविक्षन् मणिकाञ्चनतोरणाम् ॥१३८॥ संपद्भिरेवमाद्यामिवृतोऽप्यत्यन्तचारुभिः । सीता दशाननं मेने तृणादपि जघन्यकम् ॥१३९॥ अकल्मषं स्वभावेन वैदेहीमानसं नृपः । न शक्यं लोभम मम्बु यथाम्बुजम् ॥१४॥
यह सुनकर रावणने कहा कि हे भाई ! पृथ्वीतलपर वह कौन पदार्थ है जिसका मैं स्वामी न होऊँ ? अतः मेरे लिए यह परकीय वस्तु कैसे हुई ? ॥१२७।। इस प्रकार कहकर उस भिन्न हृदयने विकथाएँ करना प्रारम्भ कर दिया। तदनन्तर अवसर पाकर महानीतिज्ञ मारीच बोला ॥१२८॥ कि हे दशानन ! लोकका सब वृत्तान्त जानते हुए भी तुमने ऐसा कार्य क्यों किया ? यथार्थ में यह मोहकी ही चेष्टा है ।।१२९॥ बुद्धिमान् मनुष्यको सब तरहसे प्रातःकाल उठकर विवेकपूर्वक अपने हिताहितका विचार करना चाहिए ।।१३०॥ इस प्रकार महाबुद्धिमान् मारीच जब निरपेक्ष भावसे यह सब कह रहा था तब बीच में ही सभाके क्षोभको करता हुआ रावण उठकर खड़ा हो गया ॥१३१॥ तदनन्तर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों और अश्वारूढ़ सामन्तोंसे घिरा हुआ रावण त्रिलोकमण्डन नामक हाथीपर सवार हो गया ॥१३२॥ वह शोकसे व्याकुल सीताको पुष्पक विमानपर चढ़ाकर तथा आगे कर बड़े वैभवसे नगरीकी ओर चला ॥१३३॥ भाले, खड्ग, छत्र तथा ध्वजा आदि जिनके हाथमें थे और जो सम्भ्रमपूर्वक जोरदार नारे लगा रहे थे ऐसे पुरुष आगे-आगे चल रहे थे ॥१३४।। जिनकी ग्रीवाएँ चंचल थीं, जो सुशोभित खुरोंके अग्रभागसे पृथ्वीको खोद रहे थे तथा जिनपर मनोहर सवार बैठे हुए थे ऐसे हजारों घोड़े चल पड़े ॥१३५ जिनके घण्टे प्रचण्ड शब्द कर रहे थे, जो मेघोंके समान गर्जना कर रहे थे, जिन्हें महावत प्रेरित कर रहे थे और गण्डशैलकाली चट्टानोंवाले पर्वतोंके समान जान पड़ते थे ऐसे हाथी चलने लगे ॥१३६॥ जो अट्टहास छोड़ रहे थे अर्थात् ठहाका मारकर हँस रहे थे, नाना प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहे थे और आकाशको फोड़ते हुए-से जान पड़ते थे ऐसे मनुष्य उसके आगे-आगे जा रहे थे ॥१३७।। इस प्रकार हजारों तुरहियोंके शब्दसे दिशाओंको पूर्ण करता हुआ रावण मणि तथा स्वर्णनिर्मित तोरणोंसे अलंकृत लंका नगरीमें प्रविष्ट हुआ ॥१३८॥ यद्यपि रावण इस प्रकारको अत्यन्त सुन्दर सम्पदाओंसे घिरा हुआ था तो भी सीता उसे तृगसे भी तुच्छ समझती थी ॥१३९।। स्वभावसे ही निर्मल सीताके मनको रावण उस तरह लोभ प्राप्त करानेके लिए समर्थ नहीं हो सका जिस प्रकारकी पानी कमलको लेप प्राप्त करानेके लिए समर्थ नहीं होता है ॥१४०॥
१. रावणः म. । २. ध्वजादर्पित म., ब. । ३. लोभमाने तु लेपमप्सु यथाम्बुजम् म.।
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