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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व दंष्ट्राकरालदशार्दुःसहनिःस्वनैः । मीषिताप्यगमत्सीता शरणं न दशाननम् ॥१९॥ चलके सरसंवातैः सिंहैरुप्रनखाङ्कुशः । भीषिताप्यगमत्सीता शरणं न दशाननम् ॥१०॥ ज्वलत्स्फुलिङ्गमीमार्लसजिलैर्महोरगैः । भीषिताप्यगमत्सीता शरणं न दशाजनम् ॥१०१॥ ब्याताननैः कृतोत्पातपतनैः क्रूरमानरैः । भीषिताप्यगमत्सीता शरणं न दशाननम् ॥१०२॥ तमापिण्डासितैस्तुङ्वेतालैः कृतहङकृतः। भीषिताप्यगमत्सीता शरणं न दशाननस् ॥१०॥ एनं नानाविधैरुरुपसर्गः क्षणोदतः । भीषिताप्यगमत्सीता शरणं न दशाननम् ॥१०॥ तावञ्च समतीतायां विभावयाँ भयादिव । जिनेन्द्रवेश्मसूत्तस्थौ शङ्खभेर्यादिनिःस्वनः ॥१०॥ उद्घाटितकपाटानि द्वाराणि वरवेश्मनाम् । प्रभाते गतनिद्राणि लोचनानीव रेजिरे ॥१०६॥ संध्यया रञ्जिता प्राची दिगत्यन्तमराजत । कुडकुमस्येव पङ्कन भानोरागच्छतः कृता ।।१०७॥ नैशं ध्वान्तं समुत्सायं कृत्वेन्दुं विगतप्रभम् । उदियाय सहस्रांशुः पङ्कजानि न्यबोधयत् ।।१०८॥ ततो विमलतां प्राप्त प्रभाते चलेपक्षिणि । विभीषणादयः प्रापुर्दशास्यं प्रियबान्धवाः ॥१०९॥ खरदूषणशोकेन ते निर्वाक्यनताननाः । सवाष्पलोचना भूमौ समासीना यथोचितम् ॥११॥ तावत्पटान्तरस्थाया रुदत्याः शोकनिर्भरम् । शुश्राव योषितः शब्द मनोभेदं विमीषणः ॥११॥ जगाद व्याकुलः किंचिदपूर्वैयभिहाङ्गना । का नाम करुणं रौति स्वामिनेव वियोजिता ॥१२॥
नहीं गयो ॥९८|| जिनके दाँत दाढ़ोंसे अत्यन्त भयंकर दिखाई देते थे और जो दुःसह शब्द कर रहे थे ऐसे व्याघ्रोंके द्वारा डराये जानेपर सीता रावणकी शरणमें नहीं गयी ॥९९॥ जिनकी गरदनके बाल हिल रहे थे तथा जिनके नखरूपी अंकुश अत्यन्त तीक्ष्ण थे ऐसे सिंहोंके द्वारा डराये जानेपर भी सीता रावणकी शरणमें नहीं गयीं ॥१००॥ जिनके नेत्र देदीप्यमान तिलगोंके समान भयंकर थे तथा जिनकी जिह्वाएँ लपलपा रही थीं ऐसे बड़े-बड़े साँपोंके द्वारा डराये जानेपर भी सीता रावणकी शरणमें नहीं गयो ॥१०१।। जिनके मुख खुले हुए थे, जो बार-बार ऊपरको ओर उड़ान भरते थे तथा नीचेकी ओर गिरते थे ऐसे वानरोंके द्वारा डराये जानेपर भी सीता रावणकी शरणमें नहीं गयी ॥१०२।। जो अन्धकारके पिण्डके समान काले थे, ऊँचे थे, तथा हुंकार कर रहे थे ऐसे वेतालों के द्वारा डराये जानेपर भी सीता रावणके शरणमें नहीं गयी ॥१०३|| इस प्रकार क्षणक्षण में किये जानेवाले नाना प्रकारके भयंकर उपसर्गोंके द्वारा डराये जानेपर सीता रावणकी शरणमें नहीं गयी ॥१०४॥
__तदनन्तर भयसे ही मानो रात्रि व्यतीत ही गयी और जिन मन्दिरोंमें शंख-भेरी आदिका शब्द होने लगा ॥१०५।। प्रभात होते ही बड़े-बड़े महलोंके द्वार सम्बन्धी किवाड़ खुल गये सो उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो निद्रा-रहित नेत्र ही उन्होंने खोले हों ॥१०६॥ सन्ध्यासे रंगी हुई पूर्व दिशा अत्यन्त सुशोभित हो रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो आनेवाले सूर्यकी अगवानीके लिए कुंकुमके पंकसे ही लिप्त की गयी हो ॥१०७॥ रात्रि सम्बन्धी अन्धकारको नष्ट कर तथा चन्द्रमाको निष्प्रभ बनाकर सूर्य उदित हुआ और कमलोंको विकसित करने लगा ॥१०८।। तदनन्तर जिसमें पक्षी उड़ रहे थे ऐसे प्रातःकालकी निर्मलताको प्राप्त होनेपर विभोषण आदि प्रिय बान्धव रावणके समीप पहुंचे ॥१०९|| खरदूषणके शोकसे जिसके मुख चुपचाप नीचेकी ओर झुक रहे थे तथा जिनके नेत्र अश्रुओंसे युक्त थे ऐसे वे सब यथायोग्य भूमिपर बैठ गये ॥११०।। उसी समय विभीषणने पटके भीतर स्थित शोकके भारसे रोती हुई स्त्रीका हृदय-विदारक शब्द सुना ॥१११।। सुनकर व्याकुल होते हुए विभीषणने कहा कि यह यहाँ कौन अपूर्व स्त्री करुण शब्द कर
१. चलाः पक्षिणो यस्मिन, तस्मिन् ।
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