________________
२६०
पद्मपुराणे
शब्दोऽयं शोकसंभूतमस्याः कम्पं समुल्वणम् । निवेदयति देहस्य दुःखसंभारवाहिनः ।।११३॥ एवमुक्तं समाकर्ण्य सीता तारतरस्वनम् । रुरोद सजनस्याग्रे नूनं शोकः प्रवर्द्धते ।।११४॥ जगौ च वाष्पपूर्णास्याप्रस्खल निर्गताक्षरम् । इह को मे देव बन्धुस्त्वं यत्पृच्छसि वत्सलः ॥११५॥ सुता जनकराजस्य स्वसा मामण्डलस्य च । काकुत्स्थस्याहक पत्नी सीता दशरथस्नुषा ॥११६॥ वान्वेिषी गतो यावदर्ता मे भ्रातुराहवे । रन्धेऽहं तावदेतेन हृता कुत्सितचेतसा ॥११७॥ यावन्न मुञ्चति प्राणान् रामो विरहितो मया । भ्रातरस्मै द्रुतं तावन्नीत्वा मामर्पयोदितः ॥११॥ एवमुक्तं समाकर्ण्य क्रुद्धचेता विमीषणः । जगाद विनयं बिभ्रद् भ्रातरं गुरुवस्सलः ॥१९॥ आशीविषाग्निभूतेयं मोहाद् भ्रातः कुतस्त्वया। परनारी समानीता सर्वथा भयदायिनी ॥१२०॥ बालबुद्धरपि स्वामिन् विज्ञाप्यं श्रूयतां मम । दत्तो हि मम देवेन प्रसादो वचनं प्रति ॥१२५॥ मवस्कीर्तिलताजालैजटिलं वलयं दिशाम् । मा धाक्षोदयशोदावः प्रसीद स्थितिकोविद ।।१२२॥ परदारामिलाषोऽयमयुक्तोऽतिमयङ्करः । लजनीयो जुगुप्स्यश्च लोकद्वयनिषूदनः ॥१२३॥ धिकशब्दः प्राप्यते योऽयं सजनेभ्यः समन्ततः । सोऽयं विदारणे शक्को हृदयस्य सुचेतसाम् ॥१२४॥ जानन् सकलमर्यादा विद्याधरमहेश्वरः । ज्वलन्तमुल्मुकं कस्मात्करोषि हृदये निजे ॥१२५|| यो ना परकलत्राणि पापबुद्धिनिषेवते । नरकं स विशत्येष लोहपिण्डो यथा जलम् ॥१२६॥
रही है ऐसा जान पड़ता है मानो यह पतिके साथ वियोगको प्राप्त हुई है ॥११२।। इसका यह शब्द दुःखके भारको धारण करनेवाले शरीरके शोकोत्पन्न-उत्कट कम्पनको सूचित कर रहा है ॥११३॥ इस प्रकार विभीषणके उक्त शब्द सुनकर सीता और भी अधिक रोने लगी सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनके आगे शोक बढता है॥११४॥ उसने अश्रपर्ण मखसे टटे-फटे अक्षर प्रकट करते हुए कहा कि हे देव ! यहाँ मेरा बन्धु तू कौन है ? जो इस प्रकार स्नेहके साथ पूछ रहा है ॥११५।। मैं राजा जनककी पुत्री, भामण्डलकी बहन, रामकी पत्नी और दशरथकी पुत्रवधू सीता हूँ॥११६।। मेरा भर्ता कुशल वार्ता लेने के लिए जबतक भाईके युद्ध में गया था तबतक छिद्र देख इस दुष्टहृदयने मेरा हरण किया है ।।११७|| मुझसे बिछुड़े राम जबतक प्राण नहीं छोड़ देते हैं हे भाई! तबतक मुझे शीघ्र ही ले जाकर उन्हें सौंप दें ॥११८॥ इस प्रकार सीताके शब्द सुनकर विभीषणका चित्त कुपित हो उठा। तदनन्तर विनयको धारण करनेवाले गुरुजन-स्नेही विभीषणने भाईसे कहा कि हे भाई! आशीविष-सर्पकी विषरूपी अग्निके समान सब प्रकारसे भय उत्पन्न करनेवाली यह पर-नारी तू मोहवश कहाँसे ले आया है ? ॥११९-१२०।। हे स्वामिन् ! यद्यपि मैं बालबुद्धि हूँ तो भी मेरी प्रार्थना श्रवण कीजिए। वचनके विषयमें आपने मझपर प्रसन्नता को है अर्थात मझे वचन कहने की स्वतन्त्रता दी है ।।१२१।। हे मर्यादाके जाननेमें निपुण ! यह दिशाओंका समूह आपकी कीर्तिरूपी लताओंके जालसे व्याप्त हो रहा है सो इसे अपयशरूपी दावानल जला न दे अतः प्रसन्न होइए ॥१२२।। यह परस्त्रीकी अभिलाषा अनुचित है, अत्यन्त भयंकर है, लज्जा उत्पन्न करनेवाली है, घृणित है और दोनों लोकोंको नष्ट करनेवाली है ॥१२३।। सर्वत्र सज्जनोंसे यह धिक् शब्द प्राप्त होता है वही सहृदय मनुष्योंके हृदयके विदारण करनेमें समर्थ है अर्थात् लोकनिन्दा विचारवान् मनुष्योंके हृदयको भेदन करनेवाली है ॥१२४॥ आप तो मर्यादाको जाननेवाले, विद्याधरोंके अधिपति हैं फिर इस जलते हुए उल्मुकको अपने हृदयपर क्यों रख रहे हो ? ॥१२५।। जो पापबुद्धि मनुष्य परस्त्रियोंका सेवन करता है वह विनयसे उस तरह नरकमें प्रवेश करता है जिस तरह कि लोहका पिण्ड जलमें प्रवेश करता है ॥१२६॥ १. पूर्णास्यात्सबलं निर्गताक्षरम् म.। २. अपकीर्तिदवाग्निः 'वने च वनवह्नौ च दवो दाव इहेष्यते' इत्यमरः । ३. दिनाशकः म. । ४. समं ततः म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org