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पद्मपुराणे न जल्पति निषण्णाङ्गी नालं कायेन चेष्टते । न ददादि महाशोका दृष्टिमस्मासु जानकी ।।१६८॥ अमृतादपि सुस्वादैः पयःप्रभृतिभिः श्रितम् । सुगन्धि वृणुते नाङ्गं विचित्रं बहुवर्णकम् ।।१६९।। ततो मदनदीप्ताग्निज्वालाकीढः समन्ततः । आत्तॊ 'व्यचिन्तयत् भूरि मग्नोऽसौ व्यसनार्णवे ॥१७॥ शोचत्युन्मुक्तदी?ष्णनिश्वासानिलसन्ततिः । शुष्यन्मुखः पुनः किंचिद्गायत्यविदिताक्षरम् ।।१७१।। स्मरपालेयनिर्दग्धं धुनाति मुखपङ्कजन् । मुहुः किमपि संचित्य स्मयते क्षणनिश्चलः ।।१७२।। अनुबन्धमहादाहा समस्ता वयवानलम् । क्षिपत्यविरतं भूमौ कुट्टिमायां विवर्त्तकः ।।१७३।। उत्तिष्ठति पुनः शून्यः सेवते निजमासनम् । निःक्रामति पुनदृष्ट्वा जन प्रतिनिवर्त्तते ॥१७४॥ नागेन्द्र इव हस्तेन सर्वदिङ्मुखगामिना । आस्फालयति निःशङ्कः कुट्टिमं कम्पमानयन् ॥१७५॥ स्मरन् सीतां मनोयातामात्मानं पौरुषं विधिम् । निरपेक्षमुपालब्धं साभ्रनेत्रः प्रवर्त्तते ॥१७६॥ किंचिदायते दत्तहङ्कारश्चातिकैर्जनैः । तूष्णीमास्ते पुनः किं किमति शून्यं प्रभाषते ।।१७७।। सीता सीतेति कृत्वास्यमुत्तानं भाषते मुहुः । तिष्ठत्यवाङमुखं भूयो नखेन विलिखन् महीम् ।।१७८॥ करेण हृदयं माष्टिं बाहुमूनिमीक्षते । पुनर्मुञ्चति हुङ्कारं तल्पं मुञ्चति सेवते ॥१७९॥
दधाति हृदये पद्मं पुनर्दूरं निरस्यति । मुहुः पठति शृङ्गारं गगनाङ्गणमीक्षते ॥१०॥ किस प्रकार स्वीकृत करे ॥१६७।। वह चुपचाप बैठी है, न कुछ बोलती है, न शरीरसे कुछ चेष्टा करती है और न महाशोकसे युक्त होनेके कारण हम लोगोंपर दृष्टि ही डालती है ॥१६८॥ अमृतसे भी अधिक स्वादिष्ट, दूध आदिसे युक्त सुगन्धित, तथा अनेक वर्णका विचित्र भोजन उसे दिया
पर वह स्वीकृत नहीं करती है ॥१६९।। दतोकी बात सनकर जो सब ओरसे कामरूपी प्रचण्ड अग्निकी ज्वालाओंसे व्याप्त था तथा दुःखरूपी सागरमें निमग्न था ऐसा रावण अत्यधिक दुःखी होता हुआ पुनः चिन्तामें पड़ जाता था ॥१७०।। वह कभी लम्बी तथा गरम श्वासोच्छ्वासकी वायुको छोड़ता हुआ शोक करता था तो कभी मुख सूख जानेसे अस्पष्ट अक्षरों द्वारा कुछ गाने लगता था ॥१७१॥
वह कामरूपी तुषारसे जले हुए मुखकमलको बार-बार हिलाता था और कभी क्षणभरके लिए निश्चल बैठकर तथा कुछ सोचकर हंसने लगता था ॥१७२।। वह रत्नखचित फर्शपर लोटता और महादाहसे युक्त समस्त अवयवोंको बार-बार फैलाता था ॥१७३|| फिर उठकर खड़ा हो जाता, कभी शून्य हृदय हो अपने आसनपर जा बैठता, कभी बाहर निकलता और किसी मनुष्यको देखकर फिर लौट जाता ।।१७४|| जिस प्रकार हाथी सब दिशाओंमें जानेवाली संडसे किसीका आस्फालन करता है उसी प्रकार रावण भी निःशंक हो सब दिशाओंमें धूमनेवाले अपने हाथसे कम्पित करता हुआ फर्शको आस्फालन करता था अर्थात् फशंपर घुमा-घुमाकर हाथ पटकता था और उससे फर्शको कम्पित करता था ॥१७५।। वह मनमें आयी हुई सीताका स्मरण करता हुआ अपने पुरुषार्थ, तथा निरपेक्ष भाग्यको उलाहना दनेके लिए प्रवृत्त होता था और उस समय उसके नेत्रोंसे अश्रु निकलने लगते थे ॥१७६।। वह किसीको बुलाता था और समीपवर्ती लोग जब हुकार देते थे तब चुप रह जाता था। तदनन्तर बार-बार क्या है ? क्या है ? इस प्रकार बिना किसी लक्ष्यके बकता रहता था ॥१७७॥ वह कभी मुखको ऊपर कर 'सीता सीता' इस प्रकार बार-बार चिल्लाता था और कभी मुख नीचा कर नखसे पृथिवीको खोदता हुआ चुप बैठा रहता था।।१७८|| वह कभी हाथसे वक्षःस्थलको साफ करता था, कभी भुजाओंके अग्रभा देखता. कभी हंकार छोड़ता, कभी विस्तरपर जा लेटता था ॥१७९|| कभो हृदयपर कमल
१. विचिन्तयद् म.। २. स्मरतावयवानवम् म.। ३. -मुपालब्धं म.। ४. यतति म. । ५. -मीक्ष्यते म. ।
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