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पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व
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अथकान्ते गृहस्यास्य तरुषण्डविराजिते । प्रासादमतुलं वीक्ष्य ससार रघुनन्दनः ॥१०॥ तत्रार्हत्पतिमां दृष्ट्वा रत्नपुष्पकृतार्चनाम् । क्षणविस्मृतसंतापः पद्मो तिमुपागतः ॥१०॥ इतस्ततश्च तत्राचा वीक्षमाणः कृतानतिः । किंचित् प्रशान्तदुःखोमिरवतस्थे रघूत्तमः ॥१०२।। आत्मीयबलगुप्तश्च सुन्दो मात्रा समन्वितः । पितृभ्रातृविनाशन शोकी लङ्कामुपाविशत् ॥१०३॥
शालिनीच्छन्दः एवं संगान् सावसानान् विदित्वा नानादुःखैः प्रापणीयानुपायैः । विघ्नैर्युतान् भूरिमिर्निवारैरिच्छां तेषु प्राणिनो मा कुरुध्वम् ।।१०४॥ यद्यप्याशापूर्वकर्मानुभावान संग कतु जायते प्राणमाजाम् । प्राप्य ज्ञानं साधुवगोपदेशाद्गन्त्री नाशं सा रवेः शर्वरीव ॥१०५।।
इत्यार्षे रविपेगाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे सीतावियोगदाहाभिधानं नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४५॥
समागममें वन भी रमणीयताको प्राप्त होता है और स्त्रीके वियोगसे जलते हुए मनुष्यको सब कुछ विन्ध्य वनके समान जान पड़ता है ॥९९।।
अथानन्तर वृक्षोंके समूहसे सुशोभित, उस भवनके एकान्त स्थानमें अनुपम मन्दिर देखकर राम वहाँ गये ॥१००। उस मन्दिरमें रत्न तथा पुष्पोंसे जिसकी पूजा को गयी थी ऐसी जिनेन्द्र प्रतिमाके दर्शन कर वे क्षण-भर सब सन्ताप भलकर परम धैर्यको प्राप्त हए ॥१०॥ उस म इधर-उधर जो और भी प्रतिमाएँ थीं उनके दर्शन करते तथा नमस्कार करते हुए राम वहाँ रहने लगे। जिनेन्द्र प्रतिमाओंके दर्शन करनेसे उनके दुःखको लहरें कुछ शान्त हो गयी थीं।।१०२॥ पिता और भाईके मरनेसे जिसे शोक हो रहा था ऐसा सुन्द, अपनी सेनासे सुरक्षित होता हुआ माता चन्द्रनखाके साथ लंकामें चला गया ॥१०३।। गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार जो नाना प्रकारके दुःखदायी उपायोंसे प्राप्त करने योग्य हैं तथा अनेक प्रकारके दुनिवारसे युक्त हैं ऐसे इन परिग्रहोंको नश्वर जानकर हे भव्यजनो ! उनमें अभिलाषा मत करो ॥१०४॥ यद्यपि पूर्व कर्मोदयसे प्राणियों के परिग्रह संचित करने की आशा होती है तो भी मुनि-समूहके उपदेशसे ज्ञान प्राप्त कर वह आशा उस तरह नष्ट हो जाती है जिस तरह कि सूर्यसे प्रकाश पाकर रात्रि नष्ट हो जाती है ॥१०॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरितमें सीताके वियोगजन्य
दाहका वर्णन करनेवाला पैंतालीसवाँ पर्व समाप्त हआ ॥४५॥
१. प्रासादमञ्जुलं म. । २. ससीररघु- ज., ससार = जगाम ।
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