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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
पापात्मक मनायुष्यमस्वर्ग्य मयशस्करम् । असदीहितमेतत्ते विरुद्धं भयकारि च ॥१३॥ परदारान् समाकाङ्क्षन् महादुःखमवाप्स्यसि । पश्चात्तापपरीताङ्गो भस्मच्छन्नानकोपमम् ||१४|| महता मोहपङ्केन तवोपचितचेतसः । मुधा घर्मोपदेशोऽयमन्धे नृत्यविलासवत् ॥ १५ ॥ इच्छामात्रादपि क्षुद्र बद्ध्वा पापमनुत्तमम् । नरके वासमासाद्य कष्टं वर्त्तनमाप्स्यसि ॥ १६ ॥ रूक्षाक्षराभिधानाभिः परं वाणीभिरित्यपि । मदनाहतचित्तस्य प्रेमास्य न निवर्त्तते ( न्यवर्त्तत ) ॥१७॥ तत्र दूषणसंग्रामे निवृते परमप्रियाः । शुकहस्तप्रहस्ताद्याः सोद्वेगाः स्वाम्यदर्शनात् ॥१८॥ चलस्केतुमहाखण्डं कुमारार्कसमप्रभम् । विमानं वीक्ष्य दाशास्यं मुदितास्तं डुढौकिरे ॥१९॥ प्रदानैर्दिव्यवस्तूनां संग नैश्चाभिः परैः । ताभिश्च भृत्यसंपद्भिरप्राह्या जनकात्मजा ||२०|| "शक्नोति सुखधीः पातुं कः शिखामाशुशुक्षणेः । को वा नागवधूमूर्ध्नि स्पृशेद् रत्नशलाकिकाम् ॥२१॥ कृत्वा करपुटं मूर्ध्नि दशाङ्गुलिसमाहितम् । ननाम रावणः सीतां निन्दितोऽपि तृणाम्रवत् ॥२२॥ महेन्द्रसदृशैस्तावद्विभवैः सचिवैर्भृशम् । नानादिग्भ्यः समायातैरावृतो रक्षसां पतिः ॥२३॥ जय वर्धस्व नन्देति शब्दैः श्रवणहारिभिः । उपगीतः परिप्राप्तो लङ्कामाखण्डलोपमः || २४ ॥ अचिन्तयच्च रामस्त्री सोऽयं विद्याधराधिपः । यत्राचरत्यमर्यादां तत्र किं शरणं भवेत् ||२५|| यावत्प्राप्नोमि नो वार्ता मर्तुः कुशलवर्तिनः । तावदाहारकार्यस्य प्रत्याख्यानमिदं मम ॥२६॥
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क्यों बोल रहा है ? ||१२|| तेरी यह दुष्ट चेष्टा पापरूप है, आयुको कम करनेवाली है, नरकका कारण है, अपकीर्तिको करनेवाली है, विरुद्ध है तथा भय उत्पन्न करनेवाली है ॥ १३॥ परस्त्रीकी इच्छा करता हुआ तू महादुःखको प्राप्त होगा तथा भस्मसे आच्छादित अग्निके समान पश्चात्तापसे तेरा समस्त शरीर व्याप्त होगा || १४ | अथवा तेरा चित्त पापरूपी महापंकसे व्याप्त है अतः तुझे धर्मका उपदेश देना उसी प्रकार व्यथं है जिस प्रकार कि अन्धेके सामने नृत्यके हाव-भाव दिखाना व्यर्थं होता है ||१५|| अरे नोच ! परखीकी इच्छा मात्रसे तू बहुत भारी पाप बाँधकर नरकमें जायेगा और वहां कष्टकारी अवस्थाको प्राप्त होगा || १६ || इस प्रकार यद्यपि सीताने कठोर अक्षरोंसे भरी वाणीके द्वारा रावणका तिरस्कार किया तो भी कामसे आहत चित्त होनेके कारण उसका प्रेम दूर नहीं हुआ ॥ १७॥
वहां खरदूषणका युद्ध समाप्त होनेपर भी स्वामी रावणका दर्शन न होनेसे परम स्नेहके भरे शुक, हस्त, प्रहस्त आदि मन्त्री परम उद्वेगको प्राप्त हो रहे थे सो जब उन्होंने हिलती हुई पताकासे सुशोभित प्रातःकालीन सूर्यके समान रावणका विमान आता देखा तब वे हर्षित होकर उसके पास गये ।। १८-१९ । उन्होंने दिव्य वस्तुओंकी भेंट देकर सम्मान प्रदर्शित कर तथा अतिशय प्रिय वचन कहकर रावणकी अगवानी की तो भी भृत्योंकी उन सम्पदाओंसे सीता वशीभूत नहीं हुई ||२०|| संसार में ऐसा कौन चतुर मनुष्य है जो अग्निशिखाका पान कर सके अथवा नागिन शिरपर स्थित रत्नमयी शलाकाका स्पर्श कर सके ॥ २१ ॥ यद्यपि सीताने तृणके अग्रभागके समान रावणका तिरस्कार किया था तो भी वह दशों अंगुलियोंसे सहित अंजलि शिरपर धारण कर उसे बार-बार नमस्कार करता था || २२|| नाना दिशाओंसे आये हुए तथा इन्द्रके समान पूर्णं वैभवको धारण करनेवाले मन्त्रियोंने जिसे घेर लिया था और 'जय हो, बढ़ते रहो, स्मृद्धिमान् होओ' इत्यादि कर्णप्रिय वचनोंसे जिसकी स्तुति हो रही थी ऐसे इन्द्रतुल्य रावणने लंका में प्रवेश किया ।।२३-२४।। उस समय सोताने विचार किया कि यह विद्याधरोंका राजा ही जहां अमर्यादाका आचरण कर रहा है वहां दूसरा कौन शरण हो सकता है ? ॥ २५ ॥ फिर भी मेरा यह नियम है कि जब तक भर्ताका कुशल समाचार नहीं प्राप्त कर लेती हूँ तबतक मैरे आहार कार्यका त्याग १. शुकहस्ताद्याः सोद्वेगाः बभ्राम. म., ब. । २. स्वादुभिः म । ३. शक्तोतिसुखधीः म. ।
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