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पद्मपुराणे
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उदीचीनं प्रतीचीनं तत्रास्ति परमोज्ज्वलम् । गीर्वाणरमणं ख्यातमुद्यानं स्वर्गसंनिभम् ॥२७॥ तत्र कल्पतरुच्छाय महापादपसंकुले । स्थापयित्वा रहः सीतां विवेश स्वनिकेतनम् ||२८ ॥ तावदूषणपञ्चत्वादग्रतोऽस्य महाशुचा । अष्टादश सहस्राणि विप्रलेपुर्महास्वरम् ||२९|| भ्रातुश्चन्द्रनखा पादौ संसृत्योन्मुक्तकण्ठकम् । अभाग्या हा हतास्मीति विललापास्तदुर्दिनम् ||३०|| रमणात्मजपञ्चत्ववह्निनिर्दग्धमानसाम् । विलपन्तीमिमां भूरिं जगादैवं सहोदरः ||३१|| अलं वत्से रुदित्वा ते प्रसिद्धं किं न विद्यते । जगत्प्राग्विहितं सर्वं प्राप्नोत्यत्र न संशयः ॥ ३२ ॥ अन्यथा व महीचारा जनाः क्षुद्रकशक्तयः । क्कायमेवंविधो भर्ता भवत्या व्योमगोचरः ॥ ३३ ॥ मयेदमर्जितं पूर्वं व्यक्तं न्यायागतं फलम् । इति ज्ञाला शुचं कर्तुं कस्य मर्त्यस्य युज्यते ||३४|| नाकाले म्रियते कश्चिद्वज्रेणापि समाहतः । मृत्युकालेऽमृतं जन्तोर्विषतां प्रतिपद्यते ||३५|| येन व्यापादितो वत्से समरे खरदूषणः । अन्येषां वाहितेच्छानां मृत्युरेष मवाम्यहम् ||३६|| स्वसारमेवमाश्वास्य दत्तादेशो जिनार्चने । दह्यमानमना वासमवनं रावणोऽविशत् ॥३७॥ तत्रादरनिराकाङ्क्ष तल्पविक्षिप्तविग्रहम् । सोन्मादकेशरिच्छायं निःश्वसन्तमिवोरगम् ||३८|| भर्तारं दुःखयुक्तेव भूषणादरवर्जिता । महादरमुवाचैवमुपसृत्य मयात्मजा ॥ ३९॥ किं नाथाकुलतां धत्से खरदूषणमृत्युना । न विषादोऽस्ति शूराणामापत्सु महतीष्वपि ॥ ४० ॥
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है ॥२६॥ तदनन्तर पश्चिमोत्तर दिशामें विद्यमान अतिशय उज्ज्वल, स्वर्गके समान सुन्दर देवारण्य नामक उद्यान है सो कल्पवृक्षके समान कान्तिवाले बड़े-बड़े वृक्षोंसे व्याप्त उस उद्यानमें एक जगह सीताको ठहराकर रावण अपने महल में चला गया ||२७-२८॥ इतनेमें ही खरदूषणके मरणका समाचार पाकर रावणकी अठारह हजार रानियाँ बहुत भारी शोकके कारण महाशब्द करती हुई रावणके सामने विलाप करने लगीं ॥२९॥ चन्द्रनखा भाईके चरणोंमें जाकर तथा गला फाड़फाड़कर 'हाय-हाय मैं अभागिनी मारी गयी' इस तरह अश्रुवर्षासे दुर्दिनको पराजित करती हुई विलाप करने लगी ||३०|| पति और पुत्रकी मृत्युरूपी अग्निसे जिसका मन जल रहा था ऐसी अत्यधिक विलाप करती हुई चन्द्रनखासे भाई - रावणने इस प्रकार कहा ||३१|| कि हे वत्से ! तेरा रोना व्यर्थ है । यह क्या प्रसिद्ध नहीं है कि संसारके प्राणी पूर्वंभवमें जो कुछ करते हैं उस सबका फल अवश्य हो प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है ॥ ३२ ॥ | यदि ऐसा नहीं है तो क्षुद्रशक्तिके धारक भूमिगोचरी मनुष्य कहाँ और तुम्हारा ऐसा आकाशगामी भर्ता कहाँ ? ||३३|| 'मैंने यह सब पूर्व में संचित किया था सो उसीका यह न्यायागत फल प्राप्त हुआ है' ऐसा जानकर किसी मनुष्यको शोक करना उचित नहीं है ||३४|| जबतक मृत्यु का समय नहीं आता है तबतक वज्रसे आहत होने पर भी कोई नहीं मरता है और जब मृत्युका समय आ पहुँचता है तब अमृत भी जीवके लिए विष हो जाता है ||३५|| हे वत्से ! जिसने युद्धमें खरदूषणको मारा है उसके साथ अन्य सब शत्रुओंके लिए मैं मृत्युस्वरूप हूँ अर्थात् मैं उन सबको मारूंगा ||३६|| इस प्रकार बहनको आश्वासन तथा जिनेन्द्र देवकी अर्चाका उपदेश देकर जिसका मन जल रहा था ऐसा रावण निवासगृहमें चला गया ||३७|| वहां जाकर रावण आदरकी प्रतीक्षा किये बिना ही शय्यापर जा पड़ा। उस समय वह उन्मत्त सिंहके समान अथवा साँस भरते हुए सपंके समान जान पड़ता था ||३८|| भर्ताको ऐसा देख, दुःखयुक्तकी तरह आभूषणोंके आदरसे रहित मन्दोदरी बड़े आदरसे उसके पास जाकर इस प्रकार बोली ||३९|| कि हे नाथ ! क्या खरदूषणकी मृत्युसे आकुलताको धारण कर रहे हो ? परन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि शूर-वीरोंको बड़ी-बड़ी आपत्तियों में भी विषाद नहीं होता ॥४०॥
१. तरुतलच्छाये महापादप म । २. सर्व म. । ३. मन्दोदरी ।
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