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षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व
पुरानेकत्र संग्रामे सुहृदस्ते क्षयं गताः । न च ते शोचिता जातु दूषणं किंनु शोचसि ॥ ४१ ॥ आसन्महेन्द्रसंग्रामे श्रीमालिप्रमुखाः नृपाः । बान्धवास्ते क्षयं याताः शोचितास्ते न जातुचित् ||४२|| अभूतसर्वशोकस्त्वमासीदपि महापदि । शोकं किं वहसीदानीं जिज्ञासामि विभो वद ||४३|| "ततो महादरः स्वैरं निश्वस्योवाच रावणः । तल्पं किंचित्परित्यज्य धारितोदीरिताक्षरम् ||४४|| शृणु सुन्दरि सद्भावमेकं ते कथयाम्यहम् । स्वामिन्यसि ममासूनां सर्वदा कृतवाञ्छिता ॥ ४५ ॥ यदि वान्छसि जीवन्तं मां ततो देवि नार्हसि । कोपं कर्तुं ननु प्राणा मूलं सर्वस्य वस्तुनः ॥ ४६ ॥ ततस्तयैवमित्युक्ते शपथैर्विनियम्य ताम् । विलक्ष इव किंचित्स रावणः समभाषत ||४७ || यदि सा वेधसः सृष्टिपूर्वा दुःखवर्णना । सीता पतिं न मां वष्टि ततो मे नास्ति जीवितम् ||४८॥ लावण्यं यौवनं रूपं माधुर्यं चारुचेष्टितम् । प्राप्य तां सुन्दरीमेकां कृतार्थत्वमुपागतम् ||४९|| ततो मन्दोदरी कष्टां ज्ञात्वा तस्य दशामिमाम् । विहसन्ती जगादेवं विस्फुरद्दन्तचन्द्रिका ||५०|| इदं नाथ महाश्रयं वरो यत् कुरुतेऽर्धनम् । अपुण्या साबला नूनं या त्वां नार्थयते स्वयम् ॥ ५१ ॥ अथवा निखिले लोके सैबैका परमोदया । या त्वया मानकूटेन याच्यते परमापदा ॥ ५२ ॥ केयूररत्न जटिलैरिमैः करिकरोपमैः । आलिङ्य बाहुभिः कस्माद् बलात् कामयसे न ताम् ॥५३॥ सोsवोचद्देवि विज्ञाप्यमस्त्यत्र शृणु कारणम् । प्रसभं येन गृह्णामि न तां सर्वाङ्गसुन्दरीम् ||१४||
पहले अनेक संग्रामोंमें तुम्हारे मित्र क्षयको प्राप्त हुए हैं उन सबका तुमने शोक नहीं किया किन्तु आज खरदूषण के प्रति शोक कर रहे हो ? ॥ ४१ ॥ राजा इन्द्रके संग्राममें श्रीमाली आदि अनेक राजा जो तुम्हारे बन्धुजन थे क्षयको प्राप्त हुए थे पर उन सबका तुमने कभी शोक नहीं किया ॥४२॥ पहले बड़ी-बड़ी आपत्ति में रहनेपर भी तुम्हें किसीका शोक नहीं हुआ पर इस समय क्यों शोकको धारण करते हो यह मैं जानना चाहती हूँ सो हे स्वामिन्, इसका कारण बतलाइए ॥४३॥ तदनन्तर महान् आदरसे युक्त रावण सांस लेकर तथा कुछ शय्या छोड़कर कहने लगा । उस समय उसके अक्षर कुछ तो मुखके भीतर रह जाते थे और कुछ बाहर प्रकट होते थे ॥४४॥ उसने कहा कि हे सुन्दरि ! सुनो एक सद्भावकी बात तुमसे कहता हूँ । तुम मेरे प्राणोंकी स्वामिनी हो और सदा मैंने तुम्हें चाहा है ||४५ || यदि मुझे जीवित रहने देना चाहती हो तो हे देवि ! क्रोध करना योग्य नहीं है, क्योंकि प्राण ही तो सब वस्तुओंके मूल कारण हैं ||४६ || तदनन्तर 'ऐसा ही है' इस प्रकार मन्दोदरीके कहनेपर उसे अनेक प्रकारकी शपथोंसे नियममें लाकर कुछ-कुछ लज्जित होते हुए की तरह रावण कहने लगा ||४७|| कि जिसका वर्णन करना कठिन है ऐसी विधाता की अपूर्व सृष्टिस्वरूप वह सीता यदि मुझे पति रूपसे नहीं चाहती है तो मेरा जीवन नहीं रहेगा ||८|| लावण्य, यौवन, रूप, माधुर्य और सुन्दर चेष्टा सभी उस एक सुन्दरीको पाकर कृतकृत्यताको प्राप्त हुए हैं ||४९||
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तदनन्तर रावणकी इस कष्टकर दशाको जानकर हँसती तथा दाँतोंकी कान्तिरूपी चाँदनीको फैलाती हुई मन्दोदरी इस प्रकार बोली कि हे नाथ ! यह बड़ा आश्चर्य है कि वर याचना कर रहा है । जान पड़ता है कि वह स्त्री पुण्यहीन है जो स्वयं आपसे प्रार्थना नहीं कर रही है ||५०-५१ ।। अथवा समस्त संसारमें वही एक परम अभ्युदयको धारण करनेवाली है । जिसकी कि तुम्हारे जैसे अभिमानी पुरुष बड़ी दीनतासे याचना करते हैं ||२२|| अथवा बाजूबन्दके रत्नोंसे
fo तथा हाथी की सूँड़की उपमा धारण करनेवाली इन भुजाओंसे बलपूर्वक आलिंगन कर क्यों नहीं उसे चाह लेते हो ? || ५३ || इसके उत्तर में रावणने कहा कि हे देवि ! मैं जिस कारण उस
१. ततः सहोदरः म । २. धारिता दारितोक्षरम् (?) । ३. रसर्वा म. । ४. - मेतां ख. । ५. परमा यदा ख. ।
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