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पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व
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ततः समुद्रवातेन शिशिरस्वमुपेयुषा । अपनीतश्रमस्वेदः समाशश्वास दुःखितः ॥७॥ येऽप्यन्येऽन्वेषणं कतु गतास्तेऽन्विष्य शक्तितः । राघवस्यान्तिकं प्राप्ताः प्रणष्टवदनौजसः ॥७२॥ तेषां ज्ञात्वा मनः शून्यं महीविन्यस्तचक्षुषाम् । पद्मो जगाद दीर्घोष्णं निश्वस्य म्लानलोचनः ॥७३॥ निजां शक्तिममुञ्चद्धिर्भवद्धिः साधुखेचराः । अस्मत्कायें कृतो यत्रो दैवं तु प्रतिकूलकम् ॥७॥ तिष्ठत स्वेच्छयेदानी यात वा स्वं समाश्र
स्यगतं रत्नं करात् किं पुनरीक्ष्यते ॥७५॥ नूनं सर्व कृतं कर्म प्रापणीयं फलं मया । तत्कर्तुमन्यथा शक्यं न भवद्भिर्मयापि वा ॥७६॥ विमुकं बन्धुभिः कष्टं विकृष्टं वनमाश्रितम् । अनुकम्पा न तत्रापि जनिता देवशत्रुणा ॥७॥ मन्ये यथानुबन्धेन लग्नोऽयं विधिरुद्धतः । तथैतस्मात्परं दुःखं किं नामान्यस्करिष्यति ॥७॥ परिदेवनमारब्धे कर्तमेवं नराधिपे । धोरं विराधितोऽवोचत् परिसान्त्वनपण्डितः ॥७९॥ विषादमतुलं देव किमेवमनुसेवसे । स्वल्पैरेव दिनैः पश्य प्रियामनघविग्रहाम् ॥८॥ शोको हि नाम कोऽप्येष विषभेदो महत्तमः । नाशयत्याश्रितं देहं का कथान्येषु वस्तुषु ।।८१॥ तस्मादवलम्ब्यतां धैर्य महापुरुषसेवितम् । भवद्विधा विवेकानां भवनं क्षेत्रमुत्तमम् ॥८॥ जीवन् पश्यति भद्राणि धीरश्चिरतरादपि । ग्रही हस्तमतिर्भद्रं कृच्छ्रादपि न पश्यति ॥८३॥ कालो नैष विषादस्य दीयतां कारणे मनः । 'औदासीन्यमिहानर्थ कुरुते परमं पुरा ॥८॥
फिर बार-बार लम्बी सांस लेकर वह कम्बु पर्वतपर चढ़कर दिशाओंको ओर देखने लगा ॥७॥ तदनन्तर समुद्रकी शीतल वायुसे जिसका परिश्रम और पसीना दूर हो गया था ऐसा दुःखी रत्नजटी कुछ सन्तुष्ट हुआ ॥७१॥ जो अन्य विद्याधर सीताकी खोज करनेके लिए गये थे वे शक्ति-भर खोजकर रामके समीप वापस पहुंचे। उस समय प्रयोजनकी सिद्धि नहीं होनेसे उनके मुखका तेज नष्ट हो गया था ॥७२॥ जिनके नेत्र पृथ्वीपर लग रहे थे ऐसे उन विद्याधरोंका मन शून्य जानकर म्लाननेत्रोंके धारक रामने लम्बी और गरम सांस भरकर कहा कि हे धन्य विद्याधरो! आप लोगोंने अपनी शक्ति न छोड़ते हुए हमारे कार्यमें प्रयत्न किया है पर मेरा भाग्य ही विपरीत है ॥७३-७४।। अब आप लोग अपनी इच्छानुसार बैठिए अथवा अपने-अपने घर जाइए। जो रत्न हाथसे छूटकर बडवानलमें जा गिरता है वह क्या फिर दिखाई देता है?॥७५॥ निश्चय ही जो कछ कर्म मैंने किया है उसका फल प्राप्त करने योग्य है उसे न आप लोग अन्यथा कर सकते हैं और न मैं भी अन्यथा कर सकता हूँ ॥७६।। मैंने भाई-बन्धुओंसे रहित, कष्टकारी दूरवर्ती वनका आश्रय लिया सो वहाँ भी भाग्यरूपी शत्रुने मुझपर दया नहीं की ॥७७॥ जान पड़ता है कि यह उत्कट दुर्दैव मेरे पीछे लग गया है सो इससे अधिक दुःख और क्या करेगा? ॥७८।। इस प्रकार कहकर राम विलाप करने लगे तब सान्त्वना देने में निपुण विराधितने बड़ी धीरतासे कहा कि हे देव ! आप इस तरह अनुपम विषाद क्यों करते हैं ? आप थोड़े ही दिनोंमें निष्पाप शरीरकी धारक प्रियाको देखेंगे ॥७९-८०॥ यथार्थ में यह शोक कोई बड़ा भारी विषका भेद है जो आश्रित शरीरको नष्ट कर देता है अन्य वस्तुओंकी तो चर्चा ही क्या है ? ॥८१॥ इसलिए महापुरुषोंके द्वारा सेवित धैर्यका अवलम्बन कीजिए। आप-जैसे उत्तम-पुरुष विवेककी उत्पत्तिके उत्तम क्षेत्र हैं ।।८२॥ धीरवीर मनुष्य यदि जीवित रहता है तो बहुत समय बाद भी कल्याणको देख लेता है और जो तुच्छ बुद्धिका धारी अधीर मनुष्य है वह कष्ट भोगकर भी कल्याणको नहीं देख पाता है ॥८३॥ यह विषाद करनेका समय नहीं है कार्य करनेमें मन दीजिए क्योंकि उदासीनता बड़ा अनर्थ करनेवाली है ॥८४॥
१. अपरीतश्रमस्वेदसमासश्वासदुःखितः म. 1 २. यया स्वन्वेषणं म. । ३. वाडवास्यां गतं म., ब. । ४. विदूरं । ५. गृही ख.। ६. उदासीन म.।
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