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एकचत्वारिंशत्तमं पर्व
२०७ सुकेतुरग्निकेतुश्च तयोः प्रीतिरनुत्तमा । सुकेतुरन्यदा चाभूत् कृतदारपरिग्रहः ॥११६॥ आवयोरधुना भ्रात्रोः पृथक् शयनमेतया । क्रियते जाययावश्यमिति दुःखमुपागतः ॥११७॥ सुकेतुः प्रतिबुद्धः सन् शुभकर्मानुभावतः । अनन्तवीर्यपादान्ते श्रमणत्वं समाश्रितः॥११८॥ अग्निकेतुर्वियोगेन भ्रातुरत्यन्तदुःखितः । वाराणस्यामभूदुग्रस्तापसो धर्मचिन्तया ॥११९|| श्रुत्वा चैवंविधं तं च भ्रातरं स्नेहबन्धनः । प्रतिबोधयितुं वान्छन् सुकेतुर्गन्तुमुद्यतः ॥१२०॥ स व्रजन् गुरुणावाचि सुकेतो कथयिष्यसि । वृत्तान्तं सोदरायेमं येनासावुपशाम्यति ॥१२॥ कोऽसौ नाथेति तेनोक्त गुरुरेवमुदाहरत् । करिष्यति त्वया साकं स जल्पं दुष्मावनः ॥१२२॥ युवयोः कुर्वतोर्जल्पं जाह्ववीमागमिष्यति । चारुकन्या समं स्त्रीभिस्तिसृभिर्गीरविग्रहा ॥१२३॥ दिवसस्य गते यामे विचित्रांशुकधारिणी । एमिश्विकैर्विदित्वा तां माषितव्यमिदं त्वया ॥१२४॥ दृष्ट्वा तां वक्ष्यसीदं त्वं ज्ञानं चेदस्ति ते मते । वदैतस्याः कुमार्याः किं भवितेति शुभाशुभम् ॥१२५॥ अज्ञानोऽसौ विलक्षःसंस्तापसस्त्वां मणिष्यति । भवान् जानाविति त्वं च वक्ष्यस्येवं सुनिश्चितः ।।१२६॥ अस्त्यत्र प्रवरो नाम वैणिजः संपदान्वितः । तस्येयं दुहिता नाम्ना रुचिरेति प्रकीर्तिता ॥१२७॥ तृतीयेऽहनि पञ्चत्वं वराकीय प्रपत्स्यते । ततोऽजा कम्बरनामे विलासस्य भविष्यति ॥१२८॥ वृकेण मारिता मेषी महिषी च ततः पितुः । सातुलस्य विलासस्य भविष्यति शरीरजा ।।१२९॥
एवमस्त्विति संमाष्य प्रणम्य प्रमदी गुरुम् । सुकेतुः क्रमतः प्राप्तस्तापसानां निकेतनम् ॥१३०॥ पुरोहित था उसकी स्त्रीके सुकेतु और अग्निकेतु नामके दो पुत्र थे। उन दोनों ही पुत्रोंमें अत्यधिक प्रेम था, उस प्रेमके कारण बड़े होनेपर भी वे एक ही शय्यापर सोते थे। समय पाकर सुकेतुका विवाह हो गया। जब स्त्री घर आयी तब सुकेतु यह विचार कर बहुत दुःखी हुआ कि इस स्त्रीके द्वारा अब हम दोनों भाइयोंकी शय्या पथक-पृथक की जा रही है ॥११५-११७॥ इस प्रकार शभ कर्मके प्रभावसे प्रतिबोधको प्राप्त हो सुकेतु अनन्तवीर्य मुनिके पास दीक्षित हो गया ॥११८॥ भाईके वियोगसे अग्निकेतु भी बहुत दुःखी हो धर्म संचय करनेकी भावनासे वाराणसी में उग्र तापस हो गया ॥११९॥ स्नेहके बन्धनमें बंधे सुकेतुने जब भाईके तापस होनेका समाचार सुना तब वह उसे समझानेके अर्थ जानेके लिए उद्यत हुआ ॥१२०।। जब वह जाने लगा तब गुरुने उससे कहा कि । हे सुकेतो! तुम अपने भाईसे यह वृत्तान्त कहना जिससे वह शीघ्र ही उपशान्त हो जायेगा ॥१२॥ 'हे नाथ ! वह कौन सा वृत्तान्त है' ? इस प्रकार सुकेतुके कहने पर गुरुने कहा कि दुष्ट भावनाको धारणा करनेवाला तेरा भाई तेरे साथ वाद करेगा ॥१२२॥ सो जिस समय तुम दोनों वाद कर रहे होओगे उस समय गौरवर्ण शरीरको धारणा करनेवाली एक सुन्दर कन्या तीन स्त्रियोंके साथ गंगा आवेगी। वह दिनके पिछले प्रहरमें आवेगी तथा विचित्र वस्त्रको धारण कर रही होगी। इन चिह्नोंसे उसे जानकर तुम अपने भाईसे कहना कि यदि तुम्हारे धर्ममें कुछ ज्ञान है तो बताओ इस कन्याका क्या शुभ-अशुभ होनेवाला है ? ॥१२३-१२५॥ तब वह अज्ञानी तापसी लज्जित होता हुआ तुमसे कहेगा कि अच्छा तुम जानते हो तो कहो। यह सुन तुम निश्चयसे सुदृढ़ हो कहना कि इसी नगरमें एक सम्पत्तिशाली प्रवर नामका वैश्य रहता है यह उसीकी लड़की है तथा
रा नामसे प्रसिद्ध है ॥१२६-१२७॥ यह बेचारी आजसे तीसरे दिन मर जायेगी और कम्बर नामक ग्राममें विलास नामक वैश्यके यहाँ बकरी होगी । भेड़िया उस बकरीको मार डालेगा जिससे गाडर होगी फिर मरकर उसीके घर भैंस होगी और उसके बाद उसी विलासके पुत्री होगी। वह विलास इस कन्याके पिताका मामा होता है ॥१२८-१२९।। ‘ऐसा ही हो' इस प्रकार कहकर तथा गुरुको प्रणाम कर हर्षसे भरा सुकेतु क्रम-क्रमसे तापसोंके आश्रम में पहुँचा ॥१३०॥ १. समाश्रितं म. । २. वणिक्पुत्रः । ३. हर्षयुक्तः ।
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