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पमपुराणे मदनैर्खदिरैनिम्बैः खजूरैइछत्रकैस्तथा । नारिङ्गैर्मातुलिङ्गीभिडिमीभिस्तथासनैः ॥१६॥ नालिकेरैः कपित्थश्च रसैरामलकैर्वनैः । शमीहरीतकीमिश्च कोविदारैरगस्तिभिः ॥१७॥ करजकुष्टकालीयैरुत्कचैरजमोदकैः । ककोलत्वग्लवङ्गीभिर्मरिचाजातिभिस्तथा ॥१८॥ चविमिर्धातकीभिश्च कुर्षकैरतिमुक्तकः । पूगैस्ताम्बूलवल्लीमिरेलामी रक्तचन्दनैः ॥१९॥ वेत्रैः श्यामलतामिश्च मेषशृङ्गहरिदुमिः । पलाशैः स्पन्दनैबिल्वैश्विरबिल्वैः समेथिकैः ॥२०॥ चन्दनैररकैश्च शाल्मलीबीजकैस्तथा । एभिरन्यैश्च भूरुद्भिस्तदरण्यं विराजितम् ॥२१॥ सस्यैर्बहुप्रकारैश्च स्वयंभूतै रसोत्तमैः । पुण्डेक्षुमिश्च विस्तीर्णाः प्रदेशास्तस्य संकुलाः ॥२२॥ चित्रपादपसंघातै नावल्लीसमाकुलैः । अशोभत वनं वाढं द्वितीयभिव नन्दनम् ॥२३॥ मन्दमारुतनिक्षिप्तः पल्लवैरतिकोमलैः। ननवाटवी तोषात पद्माद्यागमजन्मनः ॥२४॥ वायुतो ह्रियमाणेन रजसाभ्युत्थितेव च । आलिलिङ्गे च सद्गन्धवाहिना नित्ययायिना ॥२५॥ अगायदिव भृङ्गाणां झङ्कारेण मनोहरम् । जहासेव सितं रम्यं शैलनिसरशीकरैः ॥२६॥ जीवंजीवकभेरुण्डहंससारसकोकिलाः । मयूरश्येनकुरराः शुककौशिकसारिकाः ॥२७॥ कपोतभृगराजाश्च भारद्वाजादयस्तथा । अरमन्त द्विजास्तस्मिन् प्रयुककलनिस्वनाः ॥२८॥ कोलाहलेन रम्येण तदनं तेन संभ्रमि । जगाद स्वागतमिव प्राप्तकर्तव्यदक्षिणम् ॥२९॥ कुतः किं राजपुत्रीति कस्मिन्नागच्छ साध्विति । इतिकोमलभारण्या संजजल्पुरिव द्विजाः ॥३०॥ सितासितारुणाम्भोजसंछन्नैरतिनिर्मलैः । सरोमिर्वीक्षितुमिव प्रवृत्तं सुकुतूहलात् ॥३१॥
फलभारनौरग्रैननामेव महादरम्। मुमोचानन्दनिश्वासमिव सद्गन्धवायुना ॥३२॥ पारिजातक, दुपहरिया, केतकी, महुआ, खैर, मैनार, खदिर, नीम, खजूर, छत्रक, नारंगी, बिजौरे, अनार, असन, नारियल, कथा, रसोंद, आंवला, शमी, हरड, कचनार, करंज, कुष्ट, कालीय, उत्कच, अजमोद, कंकोल, दालचीनी, लौंग, मिरच, चमेली, चव्य, आँवला, कुर्षक, अतिमुक्तक, सुपारी पान, इलायची, लालचन्दन, बेंत, श्यामलता, मेढासिंगी, हरिद्रु, पलाश, तेंदू, बेल, चिरोल, मेथी चन्दन, अरडूक, सेम, बीजसार, इनसे तथा इनके सिवाय अन्य वृक्षोंसे सुशोभित था ॥११-२१॥ उस वनके लम्बे-चौड़े प्रदेश स्वयं उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके धान्यों तथा रसीले पौंडों और ईखोंसे व्याप्त थे ॥२२॥ नाना प्रकारकी लताओंसे युक्त विविध वृक्षोंके समूहसे वह वन ठीक दूसरे नन्दनवनके समान सुशोभित हो रहा था ।।२३।। मन्द-मन्द वायुसे हिलते हुए अत्यन्त कोमल किसलयोंसे वह अटवी ऐसी जान पड़ती थी मानो राम आदिके आगमनसे उत्पन्न हर्षसे नृत्य ही कर रही हो ॥२४॥ वायुके द्वारा हरण की हुई परागसे वह अटवी ऊपर उठी हुई-सी जान पड़ती थी और उत्तम गन्धको धारण करनेवाली वायु मानो उसका आलिंगन कर रही थी ।।२५।। वह भ्रमरोंकी झंकारसे एसी जान पड़ती थी मानो मनोहर गान ही गा रही हो और पहाड़ी निर्झरोंके उड़ते हुए जलकणोंसे ऐसे विदित होती थी मानो शुक्ल एवं सुन्दर हास्य ही कर रही हो ॥२६॥ चकोर, भेरुण्ड, हंस, सारस, कोकिला, मयूर, बाज, कुरर, तोता, उलूक, मैना, कबूतर, भृङ्गराज, तथा भारद्वाज आदि पक्षी मनोहर शब्द करते हुए उस अटवीमें क्रीड़ा करते थे ||२७-२८।। पक्षियोंके उस मधुर कोलाहलसे वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो प्राप्त कार्यमें निपुण होनेसे संभ्रमके साथ सबका स्वागत ही कर रहा हो ॥२९॥ कलरव करते हए पक्षी कोमल वाणीसे मानो यही कह रहे थे कि हे साध्वि ! राजपुत्रि ! तुम कहाँसे आ रही हो और कहाँ आयी हो ॥३०॥ सफेद, नीले तथा लाल कमलोंसे व्याप्त अतिशय निर्मल सरोवरोंसे वह वन ऐसा जान पड़ता था मानो कुतूहलवश देखनेके लिए उद्यत ही हुआ हो ॥३१।। फलोंके भारसे झुके हुए अग्र भागोंसे वह वन ऐसा १. अटवी ननर्त इव । २. जीवंजीवश्चकोरकः । ३. महीधरं म.।
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